Monday, October 7, 2019

एड़ियों की बिवाई,छाजन,खाज (स्कैबी) खाज (स्कैबी)

एड़ियों की बिवाई
एड़ियों की बिवाई,छाजन,खाज (स्कैबी) खाज (स्कैबी)

एड़ियों की बिवाई एड़ियों की बिवाई, जिसे एड़ियों का फटना भी कहा जाता है, एक सामान्य सौंदर्य समस्या हो सकती है, लेकिन इससे गंभीर चिकित्सकीय समस्या भी पैदा हो सकती है। एड़ियों की बिवाई उस समय सामने आती है, जब एड़ियों के नीचे की बाहरी सतह की त्वचा कड़ी, सूखी और भुरभुरी हो जाती है। कभी-कभी तो बिवाई इतनी गहरी होती है कि उसमें दर्द होने लगता है और खून निकलने लगता है। फटी हुई एड़ियां पैरों की एक सामान्य समस्या है, जिसे बिवाई भी कहा जाता है। एड़ियों का फटना आमतौर पर सूखी त्वचा (जेरोसिस) के कारण होता है। जब एड़ी के चारों ओर की त्वचा मोटी हो जाती है (कैलस), तो समस्या अधिक गंभीर हो जाती है। कारण - एड़ियों की बिवाई किसी को भी प्रभावित कर सकती है, लेकिन यह मुख्य रूप से निम्न स्थितियों में होता हैं :- सूखी जलवायु में रहना मोटापा लगातार खाली पैर चलना या सैंडल या पीछे से खुले जूते पहनना पसीने की निष्क्रिय ग्रंथियां पैरों की अन्य स्थितियों के अनुरूप ही यदि बिवाई का समय पर उपचार नहीं किया जाये, तो वे खतरनाक हो सकती हैं। वे गहरी होकर संक्रमित हो सकती हैं। ये मधुमेह या सीमित प्रतिरोधी ताकत वाले मरीजों में विशेष रूप से खतरनाक हो सकती हैं। उपचार और बचाव - पैरों को नियमित रूप से नमीयुक्त बनाने से बिवाई से बचाव हो सकता है। एक बार वे हो जायें, तो हर दिन झामा ईंट से रगड़ कर त्वचा की मोटाई कम करें। खाली पैर चलने या पीछे की ओर से खुले जूते, सैंडल या पतले तले के जूते पहनने से बचें। मोटे तले के जूते स्थिति में सुधार में मदद कर सकते हैं। पैरों में हर दिन कम से कम दो बार कोई मोइश्चराइजर लगाने और सोते समय मोजे पहनने से भी मदद मिल सकती है। घरेलू उपचार - फटी हुई एड़ियों के घरेलू उपचार की चाबी यह है कि हर रोज रात में सोने से पहले मोइश्चराइजर लगायें और नमी को पैरों में बनाये रखने के लिए खासतौर पर तैयार मोजे पहन कर सोयें। ये मोजे नमी को रोकने के लिए बनाये जाते हैं। यदि आपको समय पर स्थिति में सुधार नजर नहीं आये, तो चिकित्सक से सम्पर्क करें।


छाजन

छाजन छाजन क्या होता है? छाजन त्वचा की एक स्थिति है जिससे सूखी, खुरदरी अत्यंत खुजलीदार त्वचा के धब्बे पैदा होते हैं। छाजन किस कारण होता है? छाजन सामान्यतया अति संवेदनशीलता, अलर्जी से उत्पन्न होता है जिससे कि सूजन पैदा होती है। सूजन से त्वचा में लालीपन, खुजली और खुरदरापन आ जाता है। छाजन के चिह्न और लक्षण क्या है? छाजन से त्वचा में खुजलीदार, सूखे, लाल धब्बे पड़ते हैं। खुजली से गर्मी, तनाव या खरोंच लगने से स्थिति और अधिक बिगड़ जाती है। किस आयु वालों को अधिक प्रभाव पड़ता है? यह बच्चों और शिशुओं में अधिक पाया जाता है। तथापि अधिक आयु के बच्चों और अधेड़ों में भी छाजन देखा जा सकता है। त्वचा धब्बे शरीर के किस अंग पर पाए जाते हैं? ये धब्बे अधिकांश घुटनों के पीछे, कोहनी के मोड़ों पर, कलाइयों और गला, कलाइयों और पैरों पर पाए जाते हैं। शिशुओं के गालों पर दोदरों के रूप में आरंभ होते देखे जा सकते हैं। कुछ महीनों के पश्चात दोदरे हाथों और पैरों पर भी उभर आते हैं। यह स्थिति किन लोगो में अधिक होती है? छाजन उन लोगों में सामान्यतया अधिक पाया जाता है जिनकों अस्थमा या तेज बुखार आ चुका होता है। यह उस व्यक्ति में भी पाया जाता है जिनके परिवार में छाजन परागत ज्वर या अन्य श्वसन अलर्जी का इतिहास होता है। क्या इसके कोई अतिशीघ्र प्रेरक उपादान होते हैं? इसके अनेक उपादान होते हैं और यह एक व्यक्ति से दूसरे के बीच अलग-अलग हो सकता है :- पर्यावरण उपादानों के साथ अनाश्रित खुलापन (साबुन, प्रक्षालक, क्लोरीन तथा अन्य उत्तेजन पदार्थ) कुछ खाद्य पदार्थों से लक्षणों की स्थिति बिगड़ सकती है (दूध, अंडे) तनाव भी एक उपादान होता है। शुष्क जलवायु और सूखी त्वचा से स्थिति बिगड़ सकती है। स्थिति पर नियंत्रण के लिए कौन सी सामान्य सिफारिशें लाभदायक होती है? उपर्युक्त अतिशीघ्र प्रेरक उपादानों से बचाव करके इसके बढ़ते लक्षणों को कम किया जा सकता है। छाजन का निदान कैसे किया जाता है? परिवार और व्यक्तिगत एलर्जी से संबंधित स्थितियों में शारीरिक परीक्षण विवरण तथा आवश्यक होने पर अन्य जांच पड़ताल के माध्यम से निदान किया जाता है। कभी-कभी त्वचा का नमूना लेकर जांच (बायोप्सी) तथा आवश्यक होने पर खून की भी जांच कराई जा सकती है। इस स्थिति की लंबी अवधि के प्रभाव क्या है? संक्रमण दाग सूजन के बाद हाइपोपिगमेंटेशन इस स्थिति के लिए उपचार क्या है? लक्षणों को बिगाड़ने वाले उत्तेजकों से बचें घावों को कुरेदें नहीं अधिक समय तक स्नान न करें और देरी तक स्नानघर में न रहें साबुन का प्रयोग कम से कम करें (बबल स्नान न करें) सामान्यतः प्रयोग में लायी जाने वाली चिकित्सा औषधि में, सामयिक और मौखिक स्टेरॉयड, जो घाव बह रहे हों या तेज खुजली आती हो, उनके लिए लोशन (व्याइंटनेन्ट) शामिल हैं, कोल-तार सम्मिश्रण मलहम, मोटे पड़े धब्बों के लिए सूजन और खुजली कम करने तथा सहायक संक्रमण के लिए एंटी बायोटिक का प्रयोग किया जाता है। उपचार के पश्च प्रभाव क्या है? टोपीकल स्टेरॉयड मलहम और मौखिक स्टीरोयोड त्वचा या सहायक त्वचा स्थिति में और अधिक चिड़चिड़ाहट बढ़ा सकते हैं। प्रयोग किये जा रहे एंटीबायोटिक के आधार पर कई प्रकार के पश्च प्रभाव हो सकते हैं। एंटीहिस्टामाइन से उनींदापन आता है।

खाज (स्कैबी)

खाज (स्कैबी) खुजली क्या है? खाज खुजली एक त्‍वचा रोग है जोकि सरकाप्‍टस नामक परजीवी के कारण होती है | ये 3.0 मिली मीटर सूक्ष्‍म कीट होते है जिन्‍हें घुन कहा जाता है | मादा परजीवी संक्रमण के 2-3 घंटे के भीतर त्वचा के नीचे बिल बनाता है और 2-3 अंडे रोज देता है | 10 दिनों के अंदर अंडे से बच्‍चे निकलते है और वयस्क कीट बन जाते है | खुजली एक संक्रामक रोग है जोकि एक अपेक्षाकृत छोटे घुन (सरकाप्‍टस स्क्‍ैबी) के द्वारा संक्रमण के कारण होती है| प्रसार - इस का फैलाव एक व्‍यक्ति से दूसरे व्‍यक्ति के त्‍वचा के नजदीकी संपर्क से होता है, यह संभवत: तब होता है जब विवाहित रात गुजारते है | इसका संक्रमण बिस्‍तर, कपड़ों या दैनिक व्‍यवहार जैसे हाथ मिलाना आदि से भी होता है| मादा घुन त्‍वचा के नीचे दो तीन अण्‍डे रोज देती है | दस दिन के भीतर अण्‍डे से घुन निकलते है जो कि व्‍यस्‍क घुन बन जाते है. लगभग चार हप्‍तों में मुख्‍यत: खुजलाहट जैसे लक्षण सामने आते है जोकि अविकसित घुन की वजह से उत्‍पन्‍न होते है | खाज खुजली से ग्रसित व्‍यक्ति तब तक संक्रमित कहलाता है इम तक उसका इलाज नहीं होता | उसके कपड़े और बिस्‍तर भी तभी तक संक्रमित रहते है | इलाज के बाद फिर से वह व्‍यक्ति संबंध बना सकता है| लक्षण - घुन के लाल भूरे रंग के पिंडों की बिलों या घावों में उपस्थिति लगातार खुजली का कारण बनती है | खुजली रातों की नींद खराब करने के लिए भी जानी जाती है | लगभग हमेशा तीव्र खुजली की वजह त्वचा के भीतर खुजली की एक प्रतिक्रिया के कारण होना है | पहली बार किसी को खुजली से संक्रमित होने पर चार से छह सप्ताह के तक उसे मालूम ही नहीं हो पाता कि उसे खुजली भी है | बाद में संक्रमण से पहली घुन के साथ खुजली एक घंटे के भीतर शुरू हो जाती है | हालांकि घुन मानव त्वचा से केवल तीन दिनों के लिए दूर रह सकते हैं, कपड़े या सोने का बिस्‍तर को साझा करने से परिवार के सदस्य या निकट संपर्क में आने वालों के साथ खुजली उन्‍हें भी फैल सकती हैं. मई 2002 में, रोग नियंत्रण के लिए केंद्र (सीडीसी) द्वारा यौन संचारित रोगों के उपचारके लिए अद्यतन दिशानिर्देशों में खुजली को भी शामिल किया गया हैं | आम स्थान जहॉ खाज खुजली हो सकती है, हैं: हाथ की उंगलियों और पैर की उंगलियों की झिल्ली, जघन और कमर क्षेत्र, कांख, कोहनी और घुटने, कलाई, नाभि, स्तन, नितंबों के निचले हिस्से, कभी कभी लिंग और अंडकोश की थैली, कमर और पेट के आस पास; और शायद ही कभी हाथ और पैरों के तलवों, हथेलियों के ऊपर होती हैं, और शायद ही कभी गर्दन के ऊपर भी | मई 2002 में, रोग नियंत्रण के लिए स्थापित केंद्र (सीडीसी) यौन संचारित रोगों के उपचार के लिए अद्यतन दिशानिर्देशों में खुजली शामिल हैं | जैसे ही अनजाने में खुजली के स्‍थान पर खुजलाया जाता है, वहॉ पर खारोंच के निशान दिखाई देने लगते है | खुजली के साथ फैलने वाले संक्रमण के घुनों की संख्‍या 15 तरह से अधिक नहीं हैं | घुनों के कणों की भारी संख्या के साथ (लाखों – हजारों की संख्‍या) संक्रमण तब होता है जब एक व्यक्ति खरोंच नहीं करता है या जब एक व्यक्ति की एक कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली होती है | इन रोगियों में वे लोग शामिल हैं जिन पर दवाओं की प्रतिक्रिया होती है, जिन्‍होनें कैंसर के लिए कीमोथेरपी उपचार करवाया हो, अंग प्रत्‍यारोपित के बाद दवाओं को ले रहे हैं, मानसिक रूप से मंद, या शारीरिक रूप से कमजोर हो, लेकिमिया या मधुमेह जैसे अन्य रोगों या जो जिनकी प्रतिरक्षा कम है या वे जिन्‍हें अन्‍य रोग (जैसे एक्वायर्ड इम्यूनो सिंड्रोम या एड्स के रूप में) है. खुजली के इस रूप का संक्रपण तहवाली खुजली या नार्वेजियन खुजली के रूप में जाना जाता है| संक्रमित रोगियों की त्वचा मोटी और पूरे शरीर के साथ सिर पर परतदार त्‍वचा हो जाती है | रोगनिदान - खुजली की पहचान घुन की गतिविधियों को देखकर की जाती है | कीटाणुरहित सुई को घुन के बिल के अंत में रखकर उसे स्लाइड के नीचे देखा जाता है | घुन को भी सूक्ष्मदर्शी के नीचे पहचाना जाता है | उपचार - विभिन्‍न प्रकार के मल्‍हम (जिसमे 5 प्रतिशत परमिथरिन होती है) शरीर पर लगाकर 12-24 घण्टों के लिए छोडा जाता है | एक बार ऐसा करना पर्याप्‍त है लेकिन यदि घुन अभी उपस्तिथ है तो इस प्रक्रिया को एक सप्‍ताह के बाद दोहराया जाता है. मल्‍हम या एंटीहिसटामिन औषिधि से खुजली को कम किया जाता है | बचाव - खाज खुजली से बचने के लिए अच्‍छी साफ सफाई जरूरी है. रोज स्‍नान, स्‍वच्‍छ कपड़े, दूसरे वयक्ति के इस्‍तेमाल किये हुए कपड़े नहीं पहनने चाहिए | परिवार के सभी सदस्‍यों को एक साथ उपचार लेना चाहिए. जब घर का कोई व्‍यक्ति खाज खुजली से संक्रमित हो तो उसके कपड़े, बिस्‍तर को गर्म पानी में धोकर सूरज की रोशनी में सुखाना चाहिए।




रक्त कैंसर

रक्त कैंसर

रक्त कैंसर अधिस्वेद रक्तता (ल्यूकेमिया) रक्त या अस्थि मज्जा (बोन मैरो) का कैंसर है। इसमें रक्त कोशिकाएं असामान्य रूप से बढ़ने लगती है विशेषकर सफेद रक्त कोशिकाएं। लक्षण - अत्यधिक खून बहना। अरक्तता (एनीमिआ)। बुखार, जड़ाई, रात्रि स्वेद (नाइट स्वेट) और फ्लू जैसे अन्य लक्षण कमजोरी और थकान। भूख न लगना और/वजन कम होना। मसूड़ों में सूजन होना या उनसे खून निकलना। तंत्रकीय लक्षण (सिर दर्द)। बढ़ा हुआ जिगर और प्लीहा(स्प्लीन)। आसानी से खरोंच लगना और अक्सर संक्रमण होना। जोड़ों में दर्द। सूजा हुआ गलतुंडिका (टांसिल)। स्तन कैंसर - महिलाओं में स्तन कैंसर आम बात है। महिलाओं में कैंसर से मृत्यु इसका दूसरा कारण है। किसी महिला के जीवनकाल में स्तन कैंसर का अधिकतम औसत 9 में 1 होता है। लक्षण - स्तन में पिंड स्तनाग्र (निप्पल) से स्राव अंदर को धंसी स्तनाग्र लाल / सूजा स्तनाग्र स्तनों का बढ़ना स्तनों का सिकुंड़ना स्तनों का सख्त होना हड्डी में दर्द पीठ में दर्द जोखिम कारण - स्तन कैंसर का पारिवारिक इतिहास। महिला की आयु बढ़ने के साथ साथ खतरा भी बढ़ता है। गर्भाशय कैंसर की कोई पूर्व घटना। पूर्व स्तन कैंसर, विशेष परिवर्तन तथा पहले की स्तन की बीमारी। आनुवांशिक खराबियां या परिवर्तन (बहुत कम अवसर)। 12 वर्ष से कम आयु में मासिक धर्म आरंभ होना। 50 वर्ष की आयु के बाद रजोनवृत्ति। संतानहीन। शराब, अति वसायुक्त भोजन, अधिक रेशेदार भोजन, धूम्रपान, मोटापा और पूर्व में गर्भाशय या कोलोन कैंसर। उपचार­ - स्तन कैंसर का उपचार तीन बातों पर निर्भर करता है :- यदि महिला रजोनोवृत हो चुकी हो। स्तन कैंसर कितना फैल चुका है। स्तन कैंसर की कोशिकाओं का प्रकार।

कैंसर कैंसर क्या है?

कैंसर

कैंसर कैंसर क्या है? कैंसर एक किस्म की बीमारी नहीं होती, बल्कि यह कई रूप में होता है। कैंसर के 100 से अधिक प्रकार होते हैं। अधिकतर कैंसरों के नाम उस अंग या कोशिकाओं के नाम पर रखे जाते हैं जिनमें वे शुरू होते हैं- उदाहरण के लिए, बृहदान्त्र में शुरू होने वाला कैंसर पेट का कैंसर कहा जाता है, कैंसर जो कि त्वचा की बेसल कोशिकाओं में शुरू होता है बेसल सेल कार्सिनोमा कहा जाता है। कैंसर शब्द ऐसे रोगों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिसमें असामान्य कोशिकाएं बिना किसी नियंत्रण के विभाजित होती हैं और वे अन्य ऊतकों पर आक्रमण करने में सक्षम होती हैं। कैंसर की कोशिकाओं रक्त और लसीका प्रणाली के माध्यम से शरीर के अन्य भागों में फैल सकती हैं। कैंसर के मुख्य श्रेणियां - कार्सिनोमा: ऐसा कैंसर जो कि त्वचा में या उन ऊतकों में उत्पन्न होता है, जो आंतरिक अंगों के स्तर या आवरण बनाते हैं। सारकोमा: ऐसा कैंसर जो कि हड्डी, उपास्थि, वसा, मांसपेशियों, रक्त वाहिकाओं या अन्य संयोजी ऊतक या सहायक में शुरू होता है। ल्युकेमिया: कैंसर जो कि रक्त बनाने वाले अस्थि मज्जा जैसे ऊतकों में शुरू होता है और असामान्य रक्त कोशिकाओं की भारी मात्रा में उत्पादन और रक्त में प्रवेश का कारण बनता है। लिंफोमा और माएलोमा: ऐसा कैंसर जो कि प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकाओं में शुरू होता है। केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के कैंसर: कैंसर जो कि मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी के ऊतकों में शुरू होता हैं। कैंसर की उत्पत्ति - सभी प्रकार के कैंसर कोशिकाओं में शुरू होते है, जो शरीर में जीवन की बुनियादी इकाई होती हैं। कैंसर को समझने के लिए, यह पता लगाना उपयोगी है कि सामान्य कोशिकाओं के कैंसर कोशिकाओं में परिणत होने पर क्या होता है। शरीर कई प्रकार की कोशिकाओं से बना होता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ये कोशिकाओं वृद्धि करती हैं और नियंत्रित रूप से विभाजित होती हैं। कोशिकाएं जब पुरानी या क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, तो वे मर जाती हैं और उनके स्थान पर नई कोशिकाएं आ जाती हैं। हालांकि कभी कभी यह व्यवस्थित प्रक्रिया गलत हो जाती है। जब किसी सेल की आनुवंशिक सामग्री (डीएनए) क्षतिग्रस्त हो जाती है या वे बदल जाती हैं, तो उससे उत्परिवर्तन (म्युटेशन) पैदा होता है, जो कि सामान्य कोशिकाओं के विकास और विभाजन को प्रभावित करता है। जब ऐसा होता है, तब कोशिकाएं मरती नहीं, और उसकी बजाए नई कोशिकाएं पैदा होती हैं, जिसकी शरीर को जरूरत नहीं होती। ये अतिरिक्त कोशिकाएं बड़े पैमाने पर ऊतक रूप ग्रहण कर सकती हैं, जो ट्यूमर कहलाता है। हालांकि सभी ट्यूमर कैंसर नहीं होते, ट्यूमर सौम्य या घातक हो सकता हैं। सौम्य ट्यूमर: ये कैंसर वाले ट्यूमर नहीं होते। अक्सर शरीर से हटाये जा सकते है और ज्यादातर मामलों में, वे फिर वापस नहीं आते। सौम्य ट्यूमर में कोशिकाएं शरीर के अन्य भागों में नहीं फैलते। घातक ट्यूमर: ये कैंसर वाले ट्यूमर होते हैं, और इन ट्यूमर की कोशिकाएं आसपास के ऊतकों पर आक्रमण कर सकती हैं तथा शरीर के अन्य भागों में फैल सकती हैं। कैंसर के शरीर के एक भाग से दूसरे फेलने के प्रसार को मेटास्टेसिस कहा जाता है। ल्युकेमिया: यह अस्थिमज्जा और रक्त का कैंसर है इसमें ट्यूमर नहीं। कैंसर के कुछ लक्षण - स्तन या शरीर के किसी अन्य भाग में कड़ापन या गांठ। एक नया तिल या मौजूदा तिल में परिवर्तन। कोई ख़राश जो ठीक नहीं हो पाती। स्वर बैठना या खाँसी ना हटना। आंत्र या मूत्राशय की आदतों में परिवर्तन। खाने के बाद असुविधा महसूस करना। निगलने के समय कठिनाई होना। वजन में बिना किसी कारण के वृद्धि या कमी। असामान्य रक्तस्राव या डिस्चार्ज। कमजोर लगना या बहुत थकावट महसूस करना। आमतौर पर, यह लक्षण कैंसर के कारण उत्पन्न नहीं होते। ये सौम्य ट्यूमर या अन्य समस्याओं के कारण पैदा हो सकते हैं। केवल डॉक्टर ही इनके बारे में ठीक-ठीक बता सकते हैं। जिसे भी ये लक्षण या स्वास्थ्य के अन्य परिवर्तन आते हैं, इसका तुरंत पता लगाने के लिए डॉक्टर से दिखाना चाहिए। आमतौर पर शुरुआती कैंसर दर्द नहीं करता यदि आपको कैंसर के लक्षण हैं, तो डॉक्टर को दिखाने के लिए दर्द होने का इंतजार न करें। कैंसर की रोकथाम? कैंसर होने के खतरे को कम करने के कुछ तरीके इस प्रकार हैं :- तंबाकू उत्पादों का प्रयोग न करें। कम वसा वाला भोजन करें तथा सब्जी, फलों और समूचे अनाजों का उपयोग अधिक करें। नियमित व्यायाम करें।

सर्वाइकल स्पॉन्डिलोसिस ka ilaj

सर्वाइकल स्पॉन्डिलोसिस

सर्वाइकल स्पॉन्डिलोसिस सर्वाइकल स्पाॉन्डिलाइसिस या सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस गर्दन के आसपास के मेरुदंड की हड्डियों की असामान्य बढ़ोतरी और सर्विकल वर्टेब के बीच के कुशनों (इसे इंटरवर्टेबल डिस्क के नाम से भी जाना जाता है) में कैल्शियम का डी-जेनरेशन, बहिःक्षेपण और अपने स्थान से सरकने की वजह से होता है। लगातार लंबे समय तक कंप्यूटर या लैपटॉप पर बैठे रहना, बेसिक या मोबाइल फोन पर गर्दन झुकाकर देर तक बात करना और फास्ट-फूड्स व जंक-फूड्स का सेवन, इस मर्ज के होने के कुछ प्रमुख कारण हैं। प्रौढ़ और वृद्धों में सर्वाइकल मेरुदंड में डी-जेनरेटिव बदलाव साधारण क्रिया है और सामान्यतः इसके कोई लक्षण भी नहीं उभरते। वर्टेब के बीच के कुशनों के डी-जेनरेशन से नस पर दबाव पड़ता है और इससे सर्विकल स्पाॅन्डिलाइसिस के लक्षण दिखते हैं। सामान्यतः ५वीं और ६ठी (सी५/सी६), ६ठी और ७वीं (सी६/सी७) और ४थी और ५वीं (सी४/सी५) के बीच डिस्क का सर्विकल वर्टेब्रा प्रभावित होता है। लक्षण - सर्विकल भाग में डी-जेनरेटिव परिवर्तनों वाले व्यक्तियों में किसी प्रकार के लक्षण दिखाई नहीं देते या असुविधा महसूस नहीं होती। सामान्यतः लक्षण तभी दिखाई देते हैं जब सर्विकल नस या मेरुदंड में दबाव या खिंचाव होता है। इसमें निम्नलिखित समस्याएं भी हो सकती हैं :- गर्दन में दर्द जो बाजू और कंधों तक जाती है गर्दन में अकड़न जिससे सिर हिलाने में तकलीफ होती है सिर दर्द विशेषकर सिर के पीछे के भाग में (ओसिपिटल सिरदर्द) कंधों, बाजुओं और हाथ में झुनझुनाहट या असंवेदनशीलता या जलन होना मिचली, उल्टी या चक्कर आना मांसपेशियों में कमजोरी या कंधे, बांह या हाथ की मांसपेशियों की क्षति निचले अंगों में कमजोरी, मूत्राशय और मलद्वार पर नियंत्रण न रहना (यदि मेरुदंड पर दबाव पड़ता हो) प्रबंधन - इसके लिए कई प्रकार के उपचार उपलब्ध हैं। इन उपचारो का उद्देश्य होता है :- नसों पर पड़ने वाले दबाव के लक्षणों और दर्द को कम करना स्थायी मेरुदंड और नस की जड़ों पर होने वाले नुकसान को रोकना आगे के डी-जनरेशन को रोकना इन्हें निम्नलिखित उपायों से प्राप्त किया जा सकता है - गर्दन की मांस पेशियों को सुदृढ़ करने के लिए किये गये व्यायाम से लाभ होता है, किंतु ऐसा चिकित्सक की देख-रेख में ही की जाए। फिजियोथेरेपिस्ट से ऐसा व्यायाम सीखकर घर पर इसे नियमित रूप से करें। सर्विकल कॉलर - सर्विकल कॉलर से गर्दन के हिलने डुलने को नियंत्रित कर दर्द को कम किया जा सकता है। उपचार - होलिस्टिक उपचार के अंतर्गत कई विधियों का समावेश किया जाता है। इन तरीकों से साधारण रोगी दो से तीन दिनों में और गंभीर रोगी एक से तीन महीनों में पूरी तरह स्वस्थ हो जाते है। रिलेक्सेशन एन्ड एलाइनमेंट इसमें हॉट व कोल्ड थेरैपी, कैस्टर ऑयल थेरैपी या आकाइरैन्थर मसाज द्वारा गर्दन की मांसपेशियों व अन्य ऊतकों को लचीला बनाकर एक्टिव रिलीज और काइरोप्रैक्टिस विधियों के द्वारा असामान्य ऊतकों का एलाइनमेंट किया जाता है। अधिकतर मरीजों में एक या दो उपचारों के बाद डिस्क का नर्व पर पड़ने वाला दबाव कम हो जाता है और ऊतकों में सामान्य लचीलापन आ जाता है। डिटॉक्सीफिकेशन - इसमें प्रमुख रूप से गुर्दा, यकृतऔर ज्वॉइन्ट क्लींजिंग के साथ एसिडिटी क्लींजिंग प्रमुख है। इन प्रक्रियाओं से शरीर में रोग पैदा करने वाले नुकसानदेह तत्व शीघ्रता से बाहर निकल जाते है। न्यूट्रास्यूटिकल्स - ये भोजन में उपस्थित सूक्ष्म पोषक तत्व होते है। जैसे विटामिन, खनिज लवण, ग्लूकोसामाइन, ईस्टरीफाइड ओमेगा फैटी एसिड आदि। ये तत्व ऊतकों के क्षीण होने की प्रक्रिया को रोककर उनके दोबारा निर्माण में सहायक होते है।

घुटने का दर्द upchar

घुटने का दर्द upchar

घुटने का दर्द स्त्री या पुरुष घुटनों पर हाथ रखकर उठता है तो समझ लेना चाहिए कि वह वृद्ध हो चला है और उसके घुटनों में दर्द बनने लगा है| ऐसी अवस्था में घुटनों के दर्द से बचने के लिए उचित उपचार तथा आहार-विहार का पालन करना चाहिए| कारण - यह रोग घुटनों की हड्डियों में चिकनाई घट जाने के कारण हो जाता है| वृद्धावस्था में हड्डियों में खुश्की दौड़ने लगती है और शरीर में फॅास्फोरस नामक तत्त्व की कमी हो जाती है| इसके अलावा पौष्टिक भोजन का अभाव, मानसिक तनाव व अशान्ति, शरीर में खून की कमी, भय, शंका, क्रोध आदि के कारण भी यह रोग होता है| पहचान - घुटने का दर्द बाएं, दाएं या दोनों घुटनों में हो सकता है| रोगी को बैठने के पश्चात् उठकर खड़े होने में काफी तकलीफ होती है| हवा चलने, ठंड लगने, ठंडी चीजें खाने, जाड़ा, गरमी, बरसात आदि के मौसम में यह रोग बढ़ जाता है| घुटने शक्त हो जाते हैं| उनमें चटखन होती है| कभी-कभी घुटनों में सूजन भी आ जाती है| उपचार - पानी में जरा-सा नमक डालकर गरम कर लें| फिर उस पानी में कपड़ा भिगोकर लगभग 10 मिनट तक नित्य सेंकाई करें| अदरक या सोंठ, कालीमिर्च, बायबिड़ंग तथा सेंधा नमक - सबको बराबर की मात्र में कूट-पीसकर चूर्ण बना लें| इस चूर्ण की 4 ग्राम की मात्रा शहद के साथ मिलाकर चाटें| घुटनों पर कच्चे आलुओं को पीसकर उनका लेप लगाएं| भोजन में खीरा तथा लहसुन का सेवन नित्य दो माह तक करने से घुटनों का दर्द जाता रहता है| नारियल की कच्ची गिरी पीसकर घुटनों पर लगाएं तथा चबा-चबाकर उन्हें खाएं भी| मेथी का पूर्ण एक चम्मच प्रतिदिन सुबह के समय गरम पानी के साथ सेवन करें| सरसों के तेल में दो चम्मच अजवायन, चार पूती लहसुन, दो रत्ती अफीम तथा एक चम्मच खसखस डालकर लौटा लें| फिर इस तेल को छानकर घुटनों पर मालिश करें| सोंठ का काढ़ा बनाकर उसमें एक चम्मच एरण्ड का तेल मिलाकर रोज सेवन करें| सुबह खली पेट 10 ग्राम अखरोट की गिरी का सेवन करें| लौकी उबालकर उसके पानी से घुटनों को तर करें| नीम की छाल को पीसकर चंदन की तरह घुटनों पर लगाएं| 10 ग्राम गुग्गुल को गुड़ में मिलाकर सेवन करें| बच का चूर्ण आधा चम्मच प्रतिदिन गरम पानी के साथ लें| क्या खाएं क्या नहीं - घुटने के दर्द में केवल ठंडी तथा वायु बनाने वाली चीजों का उपयोग वर्जित है| फलों तथा हरी तरकारियों का सेवन अधिक करें| मट्ठा, चाट, पकौड़े, मछली, मांस, मुर्गा, अंडा, धूम्रपान आदि का सेवन बिलकुल न करें| घुटनों को मोड़कर नहीं बैठना चाहिए| पेट को साफ रखें तथा कब्ज न बनने दें| दूध के साथ ईसबगोल की भूसी का प्रयोग करें| शरीर को अधिक थकने वाले कार्य न करें| प्रतिदिन सुबह-शाम टहलने के लिए अवश्य जाएं|

संधि शोध Arthritis

संधि शोथ

संधि शोथ संधि शोथ यानि "जोड़ों में दर्द" (अंग्रेज़ी: Arthritis / आर्थ्राइटिस) के रोगी के एक या कई जोड़ों में दर्द, अकड़न या सूजन आ जाती है। इस रोग में जोड़ों में गांठें बन जाती हैं और शूल चुभने जैसी पीड़ा होती है, इसलिए इस रोग को गठिया भी कहते हैं। संधिशोथ सौ से भी अधिक प्रकार के होते हैं। अस्थिसंधिशोथ (osteoarthritis) इनमें सबसे व्यापक है। अन्य प्रकार के संधिशोथ हैं - आमवातिक संधिशोथ या 'रुमेटी संधिशोथ' (rheumatoid arthritis), सोरियासिस संधिशोथ (psoriatic arthritis)। संधिशोथ में रोगी को आक्रांत संधि में असह्य पीड़ा होती है, नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है, ज्वर होता है, वेगानुसार संधिशूल में भी परिवर्तन होता रहता है। इसकी उग्रावस्था में रोगी एक ही आसन पर स्थित रहता है, स्थानपरिवर्तन तथा आक्रांत भाग को छूने में भी बहुत कष्ट का अनुभव होता है। यदि सामयिक उपचार न हुआ, तो रोगी खंज-लुंज होकर रह जाता है। संधिशोथ प्राय: उन व्यक्तियों में अधिक होता है जिनमें रोगरोधी क्षमता बहुत कम होती है। स्त्री और पुरुष दोनों को ही समान रूप से यह रोग आक्रांत करता है। संधिशोथ दो प्रकार के होते हैं :- (1) तीव्र संक्रामक (acute infective) संधिशोथ, (2) जीर्ण संक्रामक (chronic infective) संधिशोथ तीव्र संक्रामक संधिशोथ - किसी भी तीव्र संक्रमण के समय यह शोथ हो सकता है। निम्नलिखित प्रकार के संक्रामक संधिशोथ अधिक व्यापक हैं :- (क) तीव्र आमवातिक (rheumatic) संधिशोथ, (ख) तीव्र स्ट्रेप्टोकॉकेल (streptococcal) संधिशोथ, (ग) तीव्र स्टैफिलोकॉकेल (staphylococcal) संधिशोथ, (घ) गॉनोकॉकेल (gonococcal) संधिशोथ, (ङ) लोहित ज्वर (scarlet fever), प्रवाहिका (dysentry) अथवा टाइफाइड युक्त संधिशोथ तथा (च) सीरमरोग (serum sickness)। जीर्ण संक्रामक संधिशोथ - यह शोथ प्राय: शरीर के अनेक अंगों पर होता है। पाइरिया (pyorrhoca), जीर्ण उंडुक शोथ (appendicitis), जीर्ण पित्ताशय शोथ (cholecystitis), जीर्ण वायुकोटर शोथ (sinusitis), जीर्ण टांसिल शोथ (tonsillitis), जीर्ण ग्रसनी शोथ (pharyngitis) इत्यादि। आर्थराइटिस के लक्षण जोड़ों में दर्द या नरमी (दर्द या दबाव) जिसमें चलते समय, कुर्सी से उठते समय, लिखते समय, टाइप करते समय, किसी वस्तु को पकड़ते समय, सब्जियां काटते समय आदि जैसे हिलने डुलने की क्रियाओं में स्थिति काफी बिगड़ जाती है। शोथ जो जोड़ों के सूजन, अकड़न, लाल हो जाने और/या गर्मी से दिखाई पड़ता है। विशेषकर सुबह-सुबह अकड़न जोड़ों के लचीलेपन में कमी जोड़ों को ज्यादा हिला डुला नहीं सकना जोड़ों की विकृति वजन घटना और थकान अविशिष्ट बुखार खड़-खड़ाना (चलने पर संधि शोथ वाले जोड़ों की आवाज) संधि शोथ का उपचार तथा प्रबंधन - संधिशोथ के कारणों को दूर करने तथा संधि की स्थानीय अवस्था ठीक करने के लिए चिकित्सा की जाती है। इनके अतिरिक्त रोगी के लिए पूर्ण शारीरिक और मानसिक विश्राम, पौष्टिक आहार का सेवन, धूप सेवन, हलकी मालिश तथा भौतिक चिकित्सा करना अत्यंत आवश्यक है। संधि शोथ (आर्थराइटिस) की बीमारी की विवेकपूर्ण प्रबंधन और प्रभावी उपचार से अच्छी तरह जीवन-यापन किया जा सकता है। संधि शोथ (आर्थराइटिस) बीमारी के विषय में जानकारी रखकर और उसके प्रबंधन से विकृति तथा अन्य जटिलताओं से निपटा जा सकता है। रक्त परीक्षण और एक्स-रे की सहायता से संधि शोथ (आर्थराइटिस) की देखरेख की जा सकती है। डॉक्टर के परामर्श के अनुसार दवाइयां नियमित रूप से लें। शारीरिक वजन पर नियंत्रण रखें। स्वास्थ्यप्रद भोजन करें। डॉक्टर द्वारा दिये गये निर्देशों के अनुसार नियमित व्यायाम करें। नियमित व्यायाम करें तथा तनाव मुक्त रहने की तकनीक अपनाएं, समुचित विश्राम करें, अपने कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करके तनाव से मुक्त रहें। औषधियों के प्रयोग में अनुपूरक रूप में योग तथा अन्य वैकल्पिक रोग के उपचारों को वैज्ञानिक तरीके से लिपिबद्ध किया गया है।

मिर्गी का इलाज

मिर्गी

मिर्गी मिर्गी जिसे 'अपस्मार' भी कहा जाता है, लंबे समय से चलने वाला तंत्रिका संबंधी विकार है, जिसकी पहचान 'मिर्गी के दौरे' से की जाती है। ये दौरे वे घटनाएँ हैं, जो कि लगातार कंपन की संक्षिप्त और लगभग पता न लग पाने वाली घटनाओं से काफ़ी लंबी अवधि तक हो सकती हैं। ज्यादातर मामलों में कारण अज्ञात हैं, तथापि कुछ लोगों में मस्तिष्क की चोट, स्ट्रोक, मस्तिष्क कैंसर और नशीली दवाओं और शराब के दुरुपयोग और अन्य कारणों के परिणामस्वरूप मिर्गी विकसित होती है। मिर्गी में दौरे बार-बार पड़ते हैं और उनका कोई तत्काल अंतर्निहित कारण नहीं होता, जबकि ऐसे दौरे जो किसी एक विशेष कारण से होते हैं, उन्हें मिर्गी का प्रतीक होना नहीं माना जाता है। मिर्गी की पुष्टि अक्सर एक 'इलैक्ट्रोएनस्फैलोग्राम'[1] के साथ की जा सकती है। रोग के लक्षण - सामान्य भाषा में मिर्गी को 'मूर्च्छा' या 'दौरा' कहते हैं। मिर्गी रोग से पीड़ित व्यक्ति को दौरा पड़ने से पहले उसके रंग में परिवर्तन होने लगता है तथा उसे कानों में अजीब-अजीब-सी आवाजें सुनाई देने लगती हैं और रोगी को लगता है कि उसकी त्वचा पर या उसके नीचे बहुत से कीड़े रेंग रहे हैं। मिर्गी रोग में मस्तिष्क इस अवस्था को 'पूर्वाभास' कहते हैं। ग्रांड माल दौरे की अवस्था में रोगी ज़ोर से चीखता है और शरीर में खिंचाव होने लगता है तथा रोगी के हाथ-पैर अकड़ने लगते हैं और फिर रोगी बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ता है तथा अपने हाथ-पैर इधर-उधर फेंकने लगता है। रोगी व्यक्ति अपने शरीर को धनुष के आकार में तान लेता है और अपने सिर को एक तरफ लटका लेता है। इसके साथ-साथ वह अपने हाथ-पैरों में जोर-जोर से झटके मारता है तथा हाथ तथा पैर मुड़ जाते हैं, गर्दन टेढ़ी हो जाती है, आंखे फटी-फटी हो जाती है, पलकें स्थिर हो जाती हैं तथा उसके मुंह से झाग निकलने लगता है। मिर्गी का दौरा पड़ने पर कभी-कभी तो रोगी की जीभ भी बाहर निकल जाती है, जिसके कारण रोगी के दांतों से उसकी जीभ के कटने का डर भी लगा रहता है। मिर्गी के दौरे के समय में रोगी का पेशाब और मल भी निकल जाता है। इस क्रिया के बाद उसका शरीर ढीला पड़ जाता है तथा कुछ समय बाद रोगी को फिर से वैसे ही अगला दौरा पड़ने लगता है। इसके बाद में रोगी होश में आ जाता है। जब रोगी का दौरा समाप्त हो जाता है तो उसे अपने शरीर में बहुत कमज़ोरी महसूस होती है तथा उसका चेहरा नीला पड़ जाता है और उसके बाद रोगी को बहुत गहरी नींद आ जाती है। दौरा पड़ने के बाद रोगी बेहोश हो जाता है तथा इसके कुछ घंटे बाद रोगी को बेहतर अनुभव होने लगता है, लेकिन दौरे का असर एक हफ्ते तक रह सकता है। मिर्गी रोग के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं - मिर्गी रोग होने का वैसे तो कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन बहुत सारे वैज्ञानिकों का मानना है कि यह रोग होने का प्रमुख कारण मस्तिष्क का काई भाग क्षतिग्रस्त हो जाना है, जिसकी वजह से यह रोग हो जाता है। आमतौर पर मिर्गी का रोग अधिकतर पैतृक (वंशानुगत/अनुवांशिक) होता है। इसका कारण रोगी के माता-पिता का फिरंग रोग या उपदंश रोग से पीड़ित होना या अधिक मात्रा में शराब पीने जैसे कारणों से बच्चों को हो जाता है। इस रोग के होने के और भी कई कारण हैं, जैसे- लिंगमुण्ड की कठोरता, अपच की उग्र अवस्था, कब्ज की समस्या होने, पेट या आंतों में कीड़े होने, नाक में किसी प्रकार की ख़राबी, आंखों के रोग या मानसिक उत्तेजना, स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बन्धित रोगों के कारण आदि। मिर्गी रोग होने के और भी कई कारण हो सकते हैं, जैसे- बिजली का झटका लगना, नशीली दवाओं का अधिक सेवन करना, किसी प्रकार से सिर में तेज चोट लगना, तेज बुखार तथा एस्फीक्सिया जैसे रोग का होना आदि। इस रोग के होने का एक अन्य कारण स्नायु सम्बंधी रोग, ब्रेन ट्यूमर, संक्रमक ज्वर भी है। वैसे यह कारण बहुत कम ही देखने को मिलता है। भागदौड़ भरी ज़िंदगी में इस बीमारी के कई कारण हो सकते हैं। ज़रूरत से ज़्यादा तनाव, नींद पूरी न होना और शारीरिक क्षमता से अधिक मानसिक व शारीरिक काम करने के कारण किसी को भी मिर्गी की परेशानी हो सकती है। मिर्गी रोग कई प्रकार के ग़लत तरह के खान-पान के कारण भी होता है, जिसके कारण रोगी के शरीर में विषैले पदार्थ जमा होने लगते हैं, मस्तिष्क के कोषों पर दबाब बनना शुरू हो जाता है और रोगी को मिर्गी का रोग हो जाता है। अत्यधिक नशीले पदार्थों, जैसे- तम्बाकू, शराब का सेवन या अन्य नशीली चीजों का सेवन करने के कारण मस्तिष्क पर दबाव पड़ता है और व्यक्ति को मिर्गी का रोग हो जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार सूअरों की आंतों में पाए जाने वाले फीताकृमि (टेपवर्म) के संक्रमण की वजह से भी मिर्गी का रोग हो सकता है। सूअर खुली जगह में मल त्याग करते हैं, जिसकी वजह से ये कीड़े साग-सब्जियों के द्वारा घरों में पहुँच जाते हैं। टेपवर्म का 'सिस्ट' यदि मस्तिष्क में पहुँच जाए तो उसके क्रियाकलापों को प्रभावित कर सकता है, जिससे मिर्गी की आशंका बढ़ जाती है। मिर्गी रोग में उपचार - मिर्गी रोग साध्य है, बशर्ते इसका उपचार सही ढंग से कराया जाए। रोग के लक्षण दिखते ही न्यूरोलॉजिस्ट की राय लें। इसके इलाज में धैर्य बहुत ज़रूरी होता है। मिर्गी रोगी का इलाज 3 से 5 वर्ष तक चल सकता है। सामान्य तौर पर इस रोग के लिए 15-20 दवाइयां मौजूद हैं। डॉक्टर मरीज़ की ज़रूरतों के अनुसार इन दवाइयों का प्रयोग करते हैं। यदि एक दवाई का मरीज़ पर असर नहीं होता, तो डॉक्टर बाकी दवाइयों से उपचार करते हैं। मरीज़ पर ये दवाइयां असर करनी शुरू कर दें, तो रोग पर काबू पाया जा सकता है। किसी भी दवाई के कारगर न होने पर डॉक्टर सर्जरी की सलाह दे सकते हैं।

कान का बहना

कान का बहना

कान का बहना मवाद जैसा या पानी के समान बहना, कान बहने के कुछ आम प्रकार हैं। बहाव तीव्र या पुराना हो सकता है। कान बहना बच्चों, किशोरों , किशोरियों, कुपोषित बच्चों (क्‍वाशिओर्कर, मरास्‍मस से प्रभावित) एवं अस्वास्थ्यकर क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों में आम हैं। कारण :- सामान्‍य सर्दी-जुकाम के साथ माध्यमिक बैक्टीरियल संक्रमणों की जटिलता। लक्षण :- क या दोनों कानों में दर्द गंध के साथ बहाव बुखार उपचार - सामान्यतः कान से मवाद आने को मरीज गंभीरता से नहीं लेता, इसे अत्यंत गंभीरता से लेना चाहिए अन्यथा यह कभी-कभी गंभीर व्याधियों जैसे मेनिनजाइटिस एवं मस्तिष्क के एक विशेष प्रकार के कैंसर को उत्पन्न कर सकता है। कान में मवाद किसी भी उम्र में आ सकता है। कान से मवाद आने का स्थान मध्य कर्ण का संक्रमण है। मध्य कर्ण में सूजन होकर, पककर पर्दा फटकर मवाद आने लगता है। मध्य कान में संक्रमण पहुँचने के तीन रास्ते हैं, जिसमें 80-90 प्रश कारण गले से कान जोड़ने वाली नली है। इसके द्वारा नाक एवं गले की सामान्य सर्दी-जुकाम, टांसिलाइटिस, खाँसी आदि कारणों से मध्य कर्ण में संक्रमण पहुँचता है। डॉक्टर चाहे वह झोलाछाप हीं क्यों न हो, उसका भी दवा अवश्य काम करेगा और पूरी तरह यह बीमारी मिट जाएगी यदि आपने नीचे लिखे निर्देशों का पालन किया। कान साफ़ करने के बाद ही कान में दवा डालें। दवा के डालने के बाद कान को रुई से हमेशा बंद रखे अन्यथा हवा के संसर्ग से मवाद का आना बंद नहीं होगा। ये प्रक्रिया तीन महीने तक जारी रखें। आपको एहसास हो जायेगा कि कान से मवाद आना बंद हो गया है, लेकिन ऐसा होता नहीं है और ६ महीने या एक साल के अन्दर इसकी पुनरावृति हो जाती है। ऐसा होने पर पुनः वही प्रक्रिया चालू कर दें। इस प्रक्रिया को तीन बार करने से यह पूरी तरह ठीक हो जाती है। सावधानियां :- कान में पानी या तेल न डालें स्‍नान करते समय हमेशा दोनों कानों में कपास लगायें जब भी बहाव हो, कान साफ करने की कपास की तीली से कान साफ करें ई.एन.टी चिकित्सक से उपचार के लिए उचित परामर्श लें।

खाँसी का जड़ से इलाज

खाँसी

खाँसी खाँसी रोग कई कारणों से पैदा होता है और यदि जल्दी दूर न किया जाए तो विकट रूप धारण कर लेता है। एक कहावत है, रोग का घर खाँसी। खाँसी यूँ तो एक मामूली-सी व्याधि मालूम पड़ती है, पर यदि चिकित्सा करने पर भी जल्दी ठीक न हो तो इसे मामूली नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ऐसी खाँसी किसी अन्य व्याधि की सूचक होती है। आयुर्वेद ने खाँसी के 5 भेद बताए हैं अर्थात वातज, पित्तज, कफज ये तीन और क्षतज व क्षयज से मिलाकर 5 प्रकार के रोग मनुष्यों को होते हैं। खाँसी को आयुर्वेद में कास रोग भी कहते हैं। इसका प्रभाव होने पर सबसे पहले रोगी को गले (कंठ) में खरखरापन, खराश, खुजली आदि की अनुभूति होती है, गले में कुछ भरा हुआ-सा महसूस होता है, मुख का स्वाद बिगड़ जाता है और भोजन के प्रति अरुचि हो जाती है। ये पाँच प्रकार का कास कई कारणों से होता है और वे कारण शरीर में अन्य व्याधियाँ उत्पन्न कर शरीर को कई रोगों से ग्रस्त कर देते हैं। इसी कारण से कहावत में 'रोग का घर खाँसी' कहा गया है। खाँसी के 5 प्रकार - 1. वातज खाँसी : वात प्रकोप के कारण उत्पन्न हुई खाँसी में कफ सूख जाता है, इसलिए बहुत कम निकलता है या निकलता ही नहीं है। कफ न निकल पाने के कारण, लगातार खाँसी वेग के साथ चलती रहती है, ताकि कफ निकल जाए। इस खाँसी में पेट, पसली, आँतों, छाती, कनपटी, गले और सिर में दर्द होने लगता है। 2. पित्तज खाँसी : पित्त प्रकोप के कारण उत्पन्न हुई खाँसी में कफ पीला और कड़वा निकलता है। वमन द्वारा पीला व कड़वा पित्त निकलना, मुँह से गर्म बफारे निकलना, गले, छाती व पेट में जलन मालूम देना, मुँह सूखना, मुँह का स्वाद कड़वा रहना, प्यास लगती रहना, शरीर में दाह का अनुभव होना और खाँसी चलना, ये पित्तज खाँसी के प्रमुख लक्षण हैं। 3. कफज खाँसी : कफ प्रकोप के कारण उत्पन्न हुई खाँसी में कफ बहुत निकलता है और जरा-सा खाँसते ही सरलता से निकल आता है। कफज खाँसी के रोगी का गला व मुँह कफ से बार-बार भर जाता है, सिर में भारीपन व दर्द रहता है, शरीर में भारीपन व आलस्य छाया रहता है, मुँह का स्वाद खराब रहता है, भोजन में अरुचि और भूख में कमी हो जाती है, गले में खराश व खुजली होती है और खाँसने पर बार-बार गाढ़ा व चीठा कफ निकलता है। 4. क्षतज खाँसी : यह खाँसी उपर्युक्त तीनों कारणों वात, पित्त, कफ से अलग कारणों से उत्पन्न होती है और तीनों से अधिक गंभीर भी। अत्यन्त भोग-विलास (मैथुन) करने, भारी-भरकम बोझा उठाने, बहुत ज्यादा चलने, लड़ाई-झगड़ा करते रहने और बलपूर्वक किसी वेग को रोकने आदि कामों से रूक्ष शरीर वाले व्यक्ति के उरप्रदेश में घाव हो जाते हैं और कुपित वायु खाँसी उत्पन्न कर देती है। क्षतज खाँसी का रोगी पहले सूखी खाँसी खाँसता है, फिर रक्तयुक्त कफ थूकता है। गला हमेशा ध्वनि करता रहता है और उरप्रदेश फटता हुआ-सा मालूम देता है। 5. क्षयज खाँसी : यह खाँसी क्षतज खाँसी से भी अधिक गंभीर, कष्ट साध्य और हानिकारक होती है। विषम तथा असात्म्य आहार करना, अत्यन्त भोग-विलास करना, वेगों को रोकना, घृणा और शोक के प्रभाव से जठराग्नि का मंद हो जाना तथा कुपित त्रिदोषों द्वारा शरीर का क्षय करना। इन कारणों से क्षयज खाँसी होती है और यह खाँसी शरीर का क्षय करने लगती है। क्षयज खाँसी के रोगी के शरीर में दर्द, ज्वार, मोह और दाह होता है, प्राणशक्ति क्षीण होती जाती है, सूखी खाँसी चलती है, शरीर का बल व मांस क्षीण होता जाता है, खाँसी के साथ पूय (पस) और रक्तयुक्त बलगम थूकता है। यह क्षयज खाँसी, टीबी (तपेदिक) रोग की प्रारंभिक अवस्था होती है अतः इसे ठीक करने में विलम्ब और उपेक्षा नहीं करना चाहिए। एलोपैथिक चिकित्सा के अनुसार खाँसी होने के कारण इस प्रकार हैं- श्वसन संस्थान की विकृतियाँ - 1. श्वसन मार्ग के ऊपरी भाग में टांसिलाइटिस, लेरिन्जाइटिस, फेरिन्जाइटिस, सायनस का संक्रमण, ट्रेकियाइटिस तथा यूव्यूला का लम्बा हो जाना आदि से खाँसी होती है। 2. श्वसनी (ब्रोंकाई) में ब्रोंकाइटिस, ब्रोंकियेक्टेसिस आदि होने से खाँसी होती है। 3. फुफुक्स के रोग, जैसे तपेदिक (टीबी), निमोनिया, ट्रॉपिकल एओसिनोफीलिया आदि से खाँसी होती है। 4. प्लूरा के रोग, प्लूरिसी, एमपायमा आदि रोग होने से खाँसी होती है। खाँसी गीली और सूखी दो प्रकार की होती है। सूखी खाँसी होने के कारणों में एक्यूट ब्रोंकाइटिस, फेरिनजाइटिस, प्लूरिसी, सायनस का संक्रमण तथा टीबी की प्रारम्भिक अवस्था का होना है। कागले के बढ़ जाने से, टांसिलाइटिस से और नाक का पानी कंठ में पहुँचने से क्षोभ पैदा होता है। गीली खाँसी होने के कारणों में क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस, ब्रोंकियेक्टेसिस और फुक्फुसीय गुहा (केविटी) में कफ हो जाना होता है। इसे गीली खाँसी कहते हैं। अंदर फुफुस में घाव या सड़न हो तो कफ दुर्गंधयुक्त होता है। सामान्य खाँसी : दिनचर्या और दैनिक आहार में गड़बड़ होने से भी खाँसी चलने लगती है। इसे सामान्य खाँसी कहते हैं। गले में संक्रमण होने पर खराश और शोथ होने पर खाँसी चलने लगती है, खराब तेल से बना व्यंजन खाने, खटाई खाने, चिकनाईयुक्त व्यंजन खाकर तुरंत ठंडा पानी पीने आदि कारणों से खाँसी चलने लगती है। यह सामान्य खाँसी उचित परहेज करने और सामान्य सरल चिकित्सा से ठीक हो जाती है। यदि खाँसी 8-10 दिन तक उचित परहेज और दवा लेने पर भी ठीक न होती हो तो समझ लें कि यह 'रोग का घर खाँसी' वाली श्रेणी की खाँसी है और सावधान होकर तुरन्त उचित चिकित्सा करें। सावधानी - खाँसी के रोगी को कुनकुना गर्म पानी पीना चाहिए और स्नान भी कुनकुने गर्म पानी से करना चाहिए। कफ ज्यादा से ज्यादा निकल जाए इसके लिए जब-जब गले में कफ आए तब-तब थूकते रहना चाहिए। मधुर, क्षारीय, कटु और उष्ण पदार्थों का सामान्य सेवन करना चाहिए। मधुर द्रव्यों में मिश्री, पुराना गुड़, मुलहठी और शहद का, क्षारीय पदार्थों में यवक्षार, नवसादर और टंकण (सोहागे का फूला), कटु द्रव्यों में सोंठ, पीपल और काली मिर्च तथा उष्ण पदार्थों में गर्म पानी, लहसुन, अदरक आदि-आदि पदार्थों का सेवन करना पथ्य है। खटाई, चिकनाई, ज्यादा मिठाई, तेल के तले पदार्थों का सेवन करना अपथ्य है। ठंड, ठंडी हवा और ठंडी प्रकृति के पदार्थों का सेवन अपथ्य है अतः इनसे परहेज करना चाहिए। घरेलू इलाज - 1. सूखी खाँसी में दो कप पानी में आधा चम्मच मुलहठी चूर्ण डालकर उबालें। जब पानी आधा कप बचे तब उतारकर ठंडा करके छान लें। इसे सोते समय पीने से 4-5 दिन में अंदर जमा हुआ कफ ढीला होकर निकल जाता है और खाँसी में आराम हो जाता है। 2. गीली खाँसी के रोगी गिलोय, पीपल व कण्टकारी, तीनों को जौकुट (मोटा-मोटा) कूटकर शीशी में भर लें। एक गिलास पानी में तीन चम्मच जौकुट चूर्ण डालकर उबालें। जब पानी आधा रह जाए तब उतारकर बिलकुल ठंडा कर लें और 1-2 चम्मच शहद या मिश्री पीसकर डाल दें। इसे दिन में दो बार सुबह-शाम आराम होने तक पीना चाहिए।

तलवों में दर्द को कैसे मिटाएं

तलवों में दर्द को कैसे मिटाएं

तलवों में दर्द को कैसे मिटाएं तलवों में दर्द या सूजन की समस्या से परेशान लोगों के लिए बॉटल मसाज थैरेपी काफी उपयोगी होती है। इसके लिए आपको प्लास्टिक की बोतल में 1/3 पानी भर कर फ्रीजर में जमने के लिए रखना होगा। बोतल में जब बर्फ जम जाए तो उसे बाहर निकालें और आसपास का पानी पोंछ दें। फिर बोतल को एक सूखे टॉवल, कपड़े या डोरमैट पर रख दें। अब कुर्सी या सोफे पर बैठ जाएं और पैरों के तलवे के बीच वाले हिस्से को बोतल पर रखें व बोतल को तलवों की सहायता से आगे-पीछे करें। इससे आपके तलवों में रक्त संचार होगा और मांसपेशियों की हल्की मसाज होगी। इस प्रयोग को 10-15 मिनट तक कर सकते हैं। एक्यूप्रेशर रोलर - पैरों के तलवों पर एक्यूप्रेशर रोलर करनें से दर्द से राहत मिलती है। इस क्रिया में पैरों को रोलर पर रखकर धीरे-धीरे घुमाएं। यह क्रिया दिन में कई बार करनी चाहिए। इसे दो मिनट तक करना पर्याप्त रहता है। रोलर करने से पहले तलवों पर हल्का पाउडर लगाएं। इससे एक्यूप्रेशर आसानी से होगा। मसाज - पैरों को दबाने या मसाज करने से भी आराम मिलता है। तलवों को आराम देने के लिए मसाज करते समय दोनों पैरों के तलवों की ओर अंगूठे के बिल्कुल नीचे पड़ने वाले बिंदु पर दबाव दें। फिर पैरों के ऊपर छोटी उंगली के नीचे पड़ने वाले तीन बिंदुओं पर दबाव दें। इसके बाद पैरों के नीचे एड़ी पर पड़ने वाले तीन मास्टर बिंदुओं पर दबाव दें। i दर्द - दर्द मांसपेशियेां में होने वाली सामान्य संवेदना है, जिसकी शुरुआत आने वाले किसी भी संभावित चोट तथा अपनी देखभाल के प्रति सतर्क करने के लिये होती है। आमतौर पर भयंकर दर्द अचानक बीमारी या टिश्‍युओं के चोटिल होने से भी होता है। दर्द अचानक से और कुछ अवधि के लिए होता है। दर्द हल्‍का, रुक-रुककर या गंभीर भी हो सकता है। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर्स एंड स्ट्रोक के अनुसार, इलाज के बिना तीव्र दर्द पुराने दर्द का कारण बन सकता है। पुराना दर्द के कारण अधिकतर लोगों को अन्‍य प्रकार के रोग भी घेर सकते हैं। इस स्‍लाइड शो में पुराने दर्द का प्रबंधन करने के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं। सही तरीके से सांस लेना - विस्कोसिंन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार, श्वास पर ध्यान केंद्रित करना, दर्द से राहत पाने का एक अच्‍छा उपाय है। तीव्र दर्द में धीरे और गहरी सांस लेने से आप तनावमुक्‍त होकर अधिक नियंत्रित और अच्‍छा महसूस करते हैं। इसके अलावा मांसपेशियों और हड्डियों से जुड़े दर्द से राहत के लिए गहरी सांस लेना बहुत प्रभावी विकल्प है। हाइड्रेटेड रहना - डिहाइड्रेशन के कारण शरीर से मिनरल का नुकसान, पुराने सिर और पीठ दर्द को बढ़ा देता है। इसलिए सलाह दी जाती है कि दर्द से बचने के लिए तरल पदार्थो का अधिक से अधिक सेवन करें। कई लोग बॉडी को हाइड्रेटेड करने के लिए कॉफी, सोडा या जूस का सहारा लेते हैं ये बिलकुल गलत है क्‍योंकि इसमें अतिरिक्त कैलोरी, सोडियम और कैफिन समस्‍या को और अधिक गंभीर बना देता हैं। i ध्यान - वैसे तो दर्द के दौरान ध्‍यान करना बहुत म‍ुश्किल होता है लेकिन अगर आप एक बार ध्‍यान करने में सफल हो जाते हैं तो दर्द के अहसास को कम किया जा सकता है। यह बात एक अध्‍ययन द्धारा भी साबित हो गई है। 2011 के दौरान हुए एक शोध में पाया गया कि ध्यान और प्राणायाम से दर्द के एहसास को कम करने में लगभग 11 से 70 प्रतिशत तक सफलता मिल सकती है। शराब से बचें - दर्द के दौरान सोना बहुत म‍ुश्किल हो जाता है और शराब स्‍ि‍थति को और भी खराब कर देता है। इ‍सलिए अगर आप पुराने दर्द से पी‍ड़ि‍त हैं तो शराब से परहेज करके आप अपने जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं। संतुलित आहार - जर्नल ऑफ़ अल्टरनेटिव एंड कॉम्प्लिमेंटरी मेडिसिन के शोध के अनुसार, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ से मुक्त आहार पुराने दर्द को कम करने में मदद करते है। हरी पत्तेदार सब्जियां, ओमेगा 3 फैटी एसिड से उच्च खाद्य पदार्थ, शतावरी और लो शुगर वाले खाद्य पदार्थ जैसे चेरी, प्‍लम, और अनानास और सोया खाद्य उत्पाद दर्द को कम करने में मदद करते हैं। तनाव को कम करें - अवसाद, चिंता, तनाव और क्रोध ऐसे नकारात्‍मक भावनाएं है, जो दर्द के लिए शरीर की संवेदनशीलता को बढ़ा सकते हैं। तनाव को कम और नियंत्रण पुराने दर्द से राहत प्राप्‍त करने में मदद कर सकता है। तनाव को कम करने का सबसे अच्‍छा तरीका है संगीत। संगीत हर दर्द की दवा है। अगर आप संगीत के शौकीन हैं तो इससे बेहतर दर्दनिवारक आपके लिए कोई और हो ही नहीं सकता। हल्दी का इस्‍तेमाल - पीले रंग का यह मसाला अपने एंटी-इंफ्लेमेटरी गुणों के लिए जाना जाता है। हल्‍दी पुराने दर्द सहि‍त कई स्‍वास्‍थ्‍य स्थितियों के इलाज के लिए फायदेमंद होती है। हल्‍दी में पाया जाने वाला करक्युमिन नामक तत्‍व शरीर में होने वाले दर्द को कम करने में मदद करता है। योग - योग पुराने दर्द को दूर करने का एक सरल और आसान तरीका है। यह न केवल शक्ति और लचीलेपन को बढ़ावा देता है बल्‍िक मन को शांत और तनाव को कम करने में भी मदद करता है। सदियों से योग तनाव को कम करके पुराने दर्द से पीड़‍ित लोगों की मदद करने का एक आसान तरीका है। बैठने की सही मुद्रा - शरीर को सही मुद्रा में बनाये रखने से दर्द को कम करने में मदद मिलती है और यह भविष्य में होने वाले दर्द को भी रोकता है। इसके अलावा अगर आपको कंप्यूटर के सामने कई घंटों तक बैठना पड़ता है तो यह जरूरी है कि आप नियमित अन्तराल से ब्रेक लें। जर्नल ऑफ न्यूरोसाइंस के अनुसार, बैठने की सी-स्लंप मुद्रा तंत्रिका और रक्त प्रवाह को ख़राब कर सकती है। इसलिए सही मुद्रा के लिए, पीठ और गर्दन की मांसपेशियों पर तनाव को रोकने के लिए सिर और रीढ़ की हड्डी को सीधा करके रखें। दर्द के बारे में बात करें - अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन के अनुसार, दर्द के बारे में बात करने से इसे कम करने में मदद मिल सकती है। कुछ आम तकनीक जैसे संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी, बायोफीडबैक और निर्देशित काल्पनिक शामिल हैं। यह सभी तकनीक तनाव का प्रबंधन कर दर्द को कम करने में मदद करती है।

इरिटेबल बाउल सिंड्रोम

इरिटेबल बाउल सिंड्रोम

इरिटेबल बाउल सिंड्रोम इरिटेबल बाउल सिंड्रोम यानी आईबीएस आंतों की एक ऐसी बीमारी है जो मरीज़ की दिनचर्या में बाधा डालने लगती है। यह आंतों को डैमेज तो नहीं करती,मगर इसके लक्षण यह ज़रूर बताते हैं कि पेट के अंदर कुछ गड़बड़ चल रही है जिसे जल्द ही ठीक करने की ज़रूरत है। आईबीएस यानी आंतों में होने वाली अकड़न जिससे पेट में दर्द बना रहता है। इसे स्पैस्टिक कोलन, इरिटेबल कोलन, म्यूकस कोइलटिस जैसे नामों से भी जाना जाता है। इससे न केवल व्यक्ति को शारीरिक तकलीफ महसूस होती है, बल्कि उसकी पूरी जीवनशैली प्रभावित हो जाती है। यह आंतों को खराब तो नहीं करता लेकिन उसके संकेत देने लगता है। पुरुषों की तुलना में महिलाएं इस बीमारी से अधिक प्रभावित होती हैं। वैसे यह आंत या पेट के कैंसर के खतरे को नहीं बढ़ाता है लेकिन जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है। क्या हैं लक्षण - -पेट में मरोड़ उठना -पेट में दर्द और सूजन -लगातार कब्जियत का बना रहना -बार-बार डायरिया जैसे लक्षण इसके कारण - आईबीएस के सही कारणों का अब तक पता नहीं चला है। डॉक्टर्स मानते हैं कि संवेदनशील कोलन या कमजोर रोग-प्रतिरोधक क्षमता के कारण यह समस्या पैदा हो सकती है। कई बार पेट में बैक्टीरियल इंफेक्शन के कारण भी आईबीएस हो सकता है। इसके कुछ खास कारण भी हैं जो अलग-अलग रोगियों में भिन्न हो सकते हैं- -कोलन का कमजोर मूवमेंट, जिससे मरोड़ के साथ काफी दर्द होता है। -कोलन में सेरोटोनिन की अनियंत्रित मात्रा, जिससे आंतों का मूवमेंट प्रभावित होता हैं। -माइल्ड सेलिएक डिसीज के आंतों को डैमेज करने के कारण आईबीएस के लक्षण उभरने लगते हैं। संभव है इलाज - आईबीएस का ऐसा कोई निश्चित इलाज नहीं है, लेकिन इसके लक्षणों से राहत जरूर मिलती है। इसके लिए कोई दवा आरंभ करने से पहले जीवनशैली में बदलाव की जरूरत होती है। इससे राहत पाने के लिए कुछ खास चीजों का ध्यान रखना भी जरूरी होता है। -रोजाना व्यायाम करें। -तनाव से बचें। -कैफीनयुक्त चीजें कम से कम लें। -खाना कम मात्रा में कई बार लें। - तले-भुने और स्पाइसी खाने से दूर रहें। - प्रोबायोटिक प्रोडक्ट्‌स लें जैसे दही आदि। कैसे होती है पहचान - मरीज के लक्षणों के आधार पर आईबीएस का पता लगाना आसान होता है। कुछ खास प्रकार की डाइट का सुझाव दिया जाता है या फिर खाने में से कुछ चीजें कम कर दी जाती हैं, जिससे यह पता लगाया जा सके कि कहीं ये लक्षण किसी फूड एलर्जी के कारण तो नहीं है। स्टूल सैंपल के आधार पर इंफेक्शन का पता लगाया जाता है और ब्लड टेस्ट किया जा सकता है, जिससे यह पता लगाया जाता है कि रोगी एनिमिया से तो पीड़ित नहीं है। इसके आधार पर सेलिएक डिसीज यानी ग्लूटेन इनटोलरेंस का पता भी लगाया जाता है। इसकी जांच के लिए कोलनस्कॉपी की जाती है। इस टेस्ट के जरिए डॉक्टर कोलन की जांच करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर टिशू सैंपल लिए जाते हैं। इससे इस बात का पता लगाना आसान हो जाता है कि कहीं ये सारे लक्षण किसी और बीमारी के कारण तो नहीं है, जैसे कोलाइटिस या कोई अन्य क्रॉनिक डिसीज। मरीज की उम्र ५० वर्ष से अधिक है तो भी इस जांच की आवश्यकता पड़ती है।

एलर्जी का इलाज

एलर्जी

एलर्जी कई लोगों को गाय के दूध, मछली या फिर अंडे से एलर्जी हो सकती है। कई बार ऐसा भी होता है कि जिस खाद्य पदार्थ से आपको एलर्जी हो, उससे जुड़े खाद्य पदार्थ समूह से एलर्जी हो गई हो। ऐसे में उनका सेवन करते ही परेशानी शुरू हो जाती है। पानी में मिले कैमिकल्स आपके चेहरे की झुर्रियों का कारण बन सकते हैं। चूंकि ये शरीर द्वारा सीधे सोख लिए जाते हैं, इसलिए इनसे एलर्जी होने का खतरा भी अधिक होता है। पानी में जब क्लोरीन मिला होता है, तब वह अधिक नुकसानदेह हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि जब भी आप स्विमिंग करें तो उसके बाद साफ पानी से जरूर नहा लें। प्रदूषण से बचें - हवा से भी एलर्जी हो सकती है। पानी के साथ ही प्रदूषण युक्त हवा भी त्वचा को बैक्टीरिया के संपर्क में ले आती है, जिससे एलर्जी होने का खतरा रहता है। टैटू का त्वचा पर बुरा प्रभाव देखा गया है। इस तरह की शिकायतें आजकल आम हैं। युवाओं द्वारा बनवाए जाने वाले अस्थायी टैटू में इस्तेमाल होने वाली खराब स्याही से त्वचा में जलन हो जाती है। कपड़ों से भी हो सकती है एलर्जी - डर्मेटोलॉजिस्ट डॉं. शेहला अग्रवाल के अनुसार, ‘कपड़ों से भी एलर्जी हो सकती है। कभी-कभी कपड़ों पर इस्तेमाल होने वाला रंग यानी डाई त्वचा में एलर्जी पैदा कर देती है। वाशिंग मशीन में धुले कपड़ों से अगर साबुन ठीक से न निकला हो तो भी इससे त्वचा में खिंचाव आदि की समस्याएं होती हैं। मौसम में बदलाव भी स्किन एलर्जी का कारण हो सकता है। मौसम बदलने से हवा में पोलिन्स की संख्या बढ़ जाती है, जो त्वचा में एलर्जी का मुख्य कारण होती है।’ एलर्जी का असर - एलर्जी से आपको दर्द, खुजली, घाव हो जाना आदि समस्याएं हो सकती हैं। अगर सही समय पर इस पर ध्यान न दिया जाए तो आप त्वचा रोग के भी शिकार बन सकते हैं। इसके अलावा कई बार प्लास्टिक की चीजों जैसे नकली आभूषण, बिंदी, परफ्यूम, चश्मे के फ्रेम, साबुन आदि से भी एलर्जी हो जाती है। इस तरह की एलर्जी को कॉन्टेक्ट डर्मेटाइटिस कहा जाता है। ऐसे दूर करें असर - -फिटकरी के पानी से प्रभावित स्थान को धोकर साफ करें। जिस स्थान पर एलर्जी हो, वहां कपूर और सरसों का तेल लगाएं। आंवले की गुठली जला कर राख कर लें। उसमें एक चुटकी फिटकरी और नारियल का तेल मिला कर पेस्ट बना लें। इसे लगाते रहें। -खट्टी चीजों, मिर्च-मसालों से परहेज रखें। रोज सुबह नींबू का पानी पिएं। -चंदन, नींबू का रस बराबर मात्रा में मिला कर पेस्ट बना कर लगाएं।

डायबिटीज - (मधुमेह) - कारण , लक्षण व बचाव

डायबिटीज - (मधुमेह) - कारण , लक्षण व बचाव

डायबिटीज - (मधुमेह) - कारण , लक्षण व बचाव भारत में डायबिटीज रोगियों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि हुई है जिसकी वजह आधुनिक जीवन शैली और आहार में अनियमितता है । यह दीर्घकालीन रोग एक धीमी मौत की तरह रोगी के गुर्दों को नष्ट कर देता है एवं हृदय रोग, तात्रिंकाओं की बीमारियां ,अंधापन और गैंगरीन भी इसी रोग की देन है । ज्यादातर लोग टाइप 2 डायबिटीज से पीड़ित हैं जिसकी वजह है मोटापा, चलने-फिरने और कसरत की कमी । डायबिटीज का कोई स्थायी इलाज नहीं है परन्तु जीवन शैली में बदलाव, शिक्षा तथा खान-पान की आदतों में सुधार द्वारा इस रोग को पूरी तरह नियंत्रित किया जा सकता है । स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही तथा अशिक्षा ही डायबिटीज का प्रमुख कारण है । यदि रोग बढ़ जाए तो भी एलौपेथी तथा आयुवैदिक दवाओं, इंसुलिन व जीवन शैली में बदलाव द्वारा रोग पर काबू पाया जा सकता है । डायबिटीज जो कि हाइपरग्लाइसीमिया, हाई शुगर, हाई ग्लूकोज, मधुमेह, ग्लूकोज इनटोलरेंस नाम से भी जाना जाता है । इस रोग में ग्लोकोज का स्तर बढ़ जाता है तथा शरीर की कोशिकाएं शर्करा का उपयोग नहीं कर पाती हैं । यह रोग ‘‘ इन्सुलिन’’ नामक हार्मोन की कमी से होता है जो कि शरीर की पैन्क्रीयास ग्रन्थि से निकलता है । डायबिटीज के प्रकार - डायबिटीज मुख्य रूप से 3 प्रकार की होती है पहली टाइप 1 डायबिटीज, दूसरी टाइप 2 डायबिटीज और गैस्टेशनल डायबिटीज (1) टाइप 1 डायबिटीज - आमतौर में यह बीमारी मुख्यतः बचपन या युवावस्था (12 से 25 साल की उम्र) में होती है । वायरल संक्रमण से पैन्क्रियाज के बीटा कोशिकाएं पूर्णतः नष्ट हो जाती हैं जिसके कारण इन्सुलिन की आवश्यक मात्रा उत्पन्न नही कर पाते हैं इसलिए इसकी आवश्यकता को पूरा करने के लिए इंसुलिन लेना आवश्यक हो जाता है । इसके मरीज बहुत पतले होते हैं । भारत में लगभग 1 से 2 प्रतिशत टाइप 1 डायबिटीज के रोगी पाये जाते हैं । (2) टाइप - 2 डायबिटीज - विश्व में ज्यादरतर लोग टाइप 2 डायबिटीज रोग से पीड़ित है जिसकी वजह मोटापा है । लगभग 95 से 98 प्रतिशत भारतीयों में टाइप 2 डायबिटीज के पाया जाता है जो कि 40 वर्ष की उम्र के आसपास शुरू होता है । इस तरह के लोग मोटे होते हैं और ज्यादातर उनका पेट निकला होता है उनका पारिवारिक इतिहास (अनुंवाशकीय) होता है । उनका रोग धीरे धीरे बढ़ता है और काफी लम्बे समय तक लक्षण दिखाई नहीं देते हैं । इस टाइप की डायबिटीज में शुरू में इंसुलिन का उत्पादन ठीक रहता है पर कुछ समय बाद इंसुलिन की कमी होने से मरीज डायबिटीज का रोगी बन जाता है तब शर्करा निंयत्रित करने के लिए दवाएं लेनी शुरू करनी पड़ती हैं । टाइप 2 डायबिटीज कभी खत्म ना होने वाली बिमारी है । (3) गेस्टेशनल डायबिटीज - महिलाओं के गर्भवती होने के दौरान उसका रक्त शर्करा स्तर सामान्य से बढ़ा होना गेस्टेशनल डायबिटीज बतलाती है । गर्भावस्था में होने वाले हार्मोन परिवर्तन इन्सुलिन के कार्य को प्रभावित करते हैं और ये रक्त शर्करा बढ़ाते हैं इसके लिए ग्लूकोज टालरेन्स टेस्ट करवायें । सभी महिलाओं केा 12 वे एवं 24-28 हफते में यह टेस्ट करवाना चाहिए । डायबिटीज के शुरूआती लक्षणों को पहचाने - आज डायबिटीज एक आम समस्या बनती जा रही है कई लोगों में यह बीमारी शुरू हो जाती है पर उन्हें पता ही नहीं चल पाता इसलिए यह बहुत जरूरी है कि आप इस बीमारी के लक्षणों को पहचाना सीख लें - थकान महसूस होना, लगातार पेशाब लगना और अत्याधिक प्यास लगना, आंखें कम जोर होना जिसमें किसी भी वस्तु को देखने के लिए उसे आंखों पर जोर डालना पड़ता है, अचानक कम होना, घाव का जल्दी न भरना, तबियत खराब रहना इसमें शरीर में किसी तरह का संक्रमण जल्दी से ठीक न होना, यह आनुवांशकीय हो सकता यदि आपके परिवार में किसी अन्य सदस्य को भी डायबिटीज हो चुका हो, सावधान हो जाने की जरूरत है । पुरूषों में डायबिटीज के लक्षण - बार बार पेशाब आना, बहुत ज्यादा प्यास लगना, बहुत पानी पीने के बाद भी गला सूखना, खाना खाने के बाद भी भूख लगना, हर समय कमजोरी और थकान की शिकायत होना, मितली होना और कभी कभी उल्टी होना, हाथ-पैर में अकड़न और शरीर में झंझनाहट होना, आंखों में धुंधलापन होना, त्वचा या मूत्रमार्ग में संक्रमण, त्वचा में रूखापन आना, चिड़चिड़ापन, सिरदर्द, शरीर का तापक्रम कम होना, मांसपेशियों में दर्द और वजन कम होना इत्यादि । महिलाओं में डायबिटीज के लक्षण - अत्यधिक प्यास लगना, बार-बार पेशाब आना, भूख में वृद्धि, अत्याधिक थकान, वजन में कमी, धुंधला विजन, धीरे धीरे घाव का भरना, जननांग में खुजली या नियमित चिड़िया , महिलाओं में कम उम्र में डायबिटीज का खतरा रहता है । डायबिटीज रोग के कारण - डायबिटीज का प्रमुख कारण है पैन्क्रीयास ग्रन्थि की विकृति हो जो कि आहार-विहार की गड़बड़ी के कारण उत्पन्न होती है, आहार में मीठा, अम्ल और लवण रसों की अत्यधिक सेवन, आराम तलब जीवन व्यतीत करने से तथा व्यायाम एवं परिश्रम न करने से, अधिक चिंता एवं उद्वेग के परिणाम स्वरूप, आवश्यकता से अधिक कैलोरी वाले, शर्करा तथा वसा युक्त भोजन करने से यह रोग उत्पन्न होता है । डायबिटीज आनुवांसकीय भी हो सकता है । डायबिटीज के रोगी क्या करें - चिंता, तनाव क्रोध, शोक, व्यग्रता से मुक्त रहें, हर माह में रक्त शर्करा की जांच, भोजन कम करें, भोजन में रेशेयुक्त, तरकारी, जौ, चने, गेंहू, बाजरे की रोटी, हरी सब्जी, दही का प्रचुर मात्रा में सेवन करें, हल्का व्यायाम करें, शरीरिक परिश्रम करें, और प्रातः 4 से 5 किलोमीटर घूमें, डायबिटीज पीड़ित नियमित एवं संयमित जीवन पर ध्यान दें, शर्करीय पदार्थो का सेवन सीमीत करें, मोटे और भारी वजन वाले व्यक्ति अपना वनज कम करें, ब्रहमचर्य का पालन करें, नित्य प्राणायाम एवं सूर्य नमस्कार अवश्य करें, नगें पैर जमीन पर अवश्य चलें । डायबिटीज के मरीजों को प्यास ज्यादा लगती है वे इसे नीबू पानी से प्यास बुझांए, भूख मिटाने के लिए खीरा खायें साथ ही गाजर और पालक का रस पीयें । तरोई, लौकी, परबल, पालक, पपीता का अधिक सेवन करें, शलजम रक्त में शर्करा की मात्रा कम करता है। चमत्कारी है गेंहू के जवारे का रस इसे ग्रीन ब्लड भी कहते हैं इसे सुबह-शाम आधा कम ज्वारे का ताजा रस पीयें । डायबिटीज के घरेलू इलाज- करेला जिसमें कैरेटिन जो कि प्राकृतिक स्टेरायॅड है रक्त में शर्करा का लेवल बढ़ने नहीं देता है करेले का 100 मि.ली. रस दिन में तीन बार लें , मैथी दाना 50 ग्राम नियमित लें, जामुन के फल के रस में ‘‘जाम्बोलिन’’ तत्व एवं पत्ती और बीज डायबिटीज को जड़ से समाप्त कर सकता है, जामुन के सूखे बीजों के पाउडर एक चम्मच दिन में दो बार लें, आमला- आमला एवं करेले का रस बराबर मात्रा में मिला कर पीना लाभदायक है, नीम के 7 पत्ते खाली पेट चबाकर पानी पियें, सदाबहार के 7 फूल खाली पेट पानी के साथ चबायें काफी लाभकारी, बिल्व पत्र की 7 पत्तियां (एक पत्ती में 3 पत्तियां) एवं 5 काली मिर्च पीस कर सुबह के समय खाली पेट 1 माह तक लें, शिलाजीत 1 ग्राम प्रातः व शाम दूध के साथ लें । इंसुलिन का उपयोग हमेशा डाक्टर की निगरानी में आवश्यक है । दवा और जीवन शैली नुस्खों का प्रबंधन जरूरी है । आज स्टेम सेल थैरेपी हमें डायबिटीज से मुक्ति दिला सकती है इसमें बोन मैरो व अम्बिलिकल काॅड से स्टेम कोशिकाएं निकालते हैं और उन कोशिकाओं को पैन्क्रियाज की बीटा कोशिकाएं बनने लगती है और साथ ही बनने लगती हैं इंसुलिन, पूरी प्रक्रिया मं 24 दिन लगते हैं और इलाज का खर्च 3 लाख आता है और सफलता 70 प्रतिशत पाई गई है ।

दाद लक्षणों को पहचानें

दाद लक्षणों को पहचानें

दाद लक्षणों को पहचानें दाद यानी की रिंगवार्म एक चर्म रोग है. यह फंगल इन्फेक्शन की वजह से होता है. दाद व्यक्ति की हथेलियों, एडियों, खोपडी, दाढी तथा शरीर के किसी भी भाग में हो सकता है. दाद शरीर के जिस भाग पर होता है उस भाग पर खुजली मचती है और जब व्यक्ति इसे खुजलाने लगता है तो यह और भी फैलने लगता है. गीलेपन, नमी और भीड-भाड वाली जगह पर यह ज्यादा फैलता है. साथ ही यह संक्रमित इंसान से उसके सामानों को प्रयोग करने से फैलता है. अगर आपने उसकी कंघी, तौलिया या बेड प्रयोग कर लिया तो यह आप तक आराम से पहुंच जायेगा. इस समस्या को पूरी तरह से ठीक होने में कई हफ्ते लग सकते हैं. लक्षणों को पहचानें - जब शरीर पर लाल रंग के धब्बे, खुजलाहट या फिर सूजन दिखे, तो उसको जल्द से जल्द डॉक्टर को दिखा लेना चाहिए. क्योंकि यह रिंगवार्म के संकेत हो सकते हैं. कई बार यह दाग गोल आकार का होता है जिससे आसानी से समझ में आ जाता है. अकसर दाद छोटे बच्चों को होता है इसलिये अगर उसके शरीर पर कोई लाल रंग का दाग-धब्बा दिख रहा हो तो तुरंत डॉक्टर के पास उसे ले जायें. जॉक खुजली एक तरह का दाद होता है जो कि त्वचा की परतों में होता है. अगर यह रोग हाथ पर होता है तो हाथ पूरी तरह से फूल जाता है. त्वचा पर तेज खुजली होती है और उस पर परत बन जाती है. ऐसे करें उपचार - टीवी पर दाद के अनेक प्रचार आते हैं, लेकिन कभी भी ऐसे ही कोई क्रीम या दवा नहीं खरीदनी चाहिए. इसके लिए हमेशा कैमिस्ट या डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए. दाद रोग से पीडित रोगी को इस रोग का उपचार करने के लिए सबसे पहले दाद वाले भाग पर थोडी देर गर्म तथा थोडी देर ठंडी सिंकाई करके, उस पर गीली मिट्टी का लेप करना चाहिए. इससे दाद जल्दी ही ठीक हो जाता है. रोगी व्यक्ति को नींबू का रस पानी में मिलाकर प्रतिदिन कम से कम ५ बार पीना चाहिए और सादा भोजन करना चाहिए. संक्रमित त्वचा को हमेशा साफ रखें और ऐसी कोई भी चीज ना पहने जिससे त्वचा को परेशानी हो. अपनी बेडशीट, कपडे तथा रोज प्रयोग किये जाने वाले सामानों को साफ रखें. घर में अगर पालतू जानवर हैं, तो उनसे दूर रहें. क्योंकि यह अपने शरीर पर फंगस ले कर घूमते रहते हैं. बालों में शैंपू करें और हमेशा चप्पल पहनें. किसी का भी तौलिया, कंघी या फिर कपडे प्रयोग न करें. इससे संक्रमण आसानी से फैलता है.

एनीमिया का उपचार

एनीमिया का उपचार

एनीमिया का उपचार एनीमिया एक ऐसी बीमारी है जिसमें शरीर में खून की कमी होती है। डॉक्टर इसके लिए अनेक दवाएं खिलाते हैं लेकिन अपनी दिनचर्या में आसन-प्राणायाम को शामिल कर आप इस बीमारी से तो मुक्ति पा ही सकते हैं, शरीर को मजबूत भी बना सकते हैं। जब शरीर के रक्त की लाल कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन नामक पदार्थ का स्तर सामान्य से नीचे हो जाता है तो उस अवस्था को एनीमिया के नाम से जाना जाता है। जब हीमोग्लोबिन की मात्र कम हो जाती है तो रक्त की ऑक्सीजन वहन करने की क्षमता कम हो जाती है। इससे उत्साह में कमी, थकान, बदन दर्द, सिर दर्द, चक्कर आना, अरुचि जैसे लक्षण देखने को मिलते हैं। योग के अभ्यास से एनीमिया की समस्या का समाधान सरलता से किया जा सकता है। इस समस्या का मूल कारण मन तथा भावनाओं का असंतुलन है जो अंत में शरीर को कमजोर एवं रोगी बना देता है। योग शरीर, मन एवं भावनाओं को स्वस्थ कर सम्पूर्ण स्वास्थ्य की रक्षा करता है। इसके लिए कुछ यौगिक क्रियाएं हैं जिनका अभ्यास कर आप एनीमिया की समस्या में राहत पा सकते हैं। आसन एनीमिया के रोगी में कमजोरी तथा उदासी के लक्षण अधिक देखने को मिलते हैं। इसलिए उन्हें कठिन तथा अधिक मात्र में आसनों के अभ्यास की सलाह नहीं दी जाती है। इस स्थिति में प्रारम्भ में सूर्य नमस्कार के एक या दो चक्र, वज्रासन, पवनमुक्तासन, मर्करासन, तितली आसन, गोमुख आसन, मण्डूक आसन आदि का ही अपनी क्षमता के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। जैसे-जैसे स्थिति में सुधार होता जाए, अभ्यास में धीरे-धीरे धनुरासन, भुंजगासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन जैसे कठिन आसनों को जोड़ा जा सकता है। तितली आसन की अभ्यास विधि दोनों पैरों को सामने की ओर फैलाकर बैठ जाइए। फिर, दोनों पैरों को घुटनों से मोड़कर इनके तलवों को आपस में सामने की ओर इस प्रकार सटाइए कि एड़ियां जननेन्द्रिय के पास में या नीचे आ जायें। दोनों हाथों से पैरों के पंजों को दृढ़तापूर्वक पकड़कर घुटनों को जमीन से ऊपर उठाइए और नीचे कीजिए। यह क्रिया सुविधानुसार 25 से 50 बार कीजिए। फिर वापस पूर्व स्थिति में आइए। प्राणायाम एनीमिया के रोगी के लिए सरल कपालभाति के साथ नाड़ीशोधन तथा भ्रामरी प्राणायाम का अभ्यास बहुत लाभकारी सिद्ध होता है। इसके अभ्यास से शरीर के सभी अंगों को पर्याप्त पोषण मिलता है। इससे मानसिक शांति तथा एकाग्रता भी प्राप्त होती है। भ्रामरी प्राणायाम की अभ्यास विधि ध्यान के किसी भी आसन में रीढ़, गला व सिर को सीधा कर बैठ जाएं। एक दीर्घ श्वास अंदर लेकर कानों को हाथ के अंगूठे या किसी भी अंगुली से सहजता के साथ बंद कर लें। अब नाक या गले से भौंरे जैसी आवाज निकालें। आवाज निकालते समय प्रश्वास नियंत्रित ढंग से बाहर निकलने दें। यह भ्रामरी प्राणायाम की एक आवृत्ति है। इसकी दस-पन्द्रह आवृत्तियों का अभ्यास करें। अन्य उपाय रोज सुबह-शाम टहलने जाएं। प्रात:काल नंगे बदन धूप में बैठें। नियमित रूप से सारे शरीर की मालिश करें। ठंडे पानी से स्नान करें और तौलिये से बदन को इस प्रकार रगड़ें कि त्वचा हल्की लाल हो जाए। प्रतिदिन योगनिद्रा एवं ध्यान करें। नींद भी भरपूर और नियंत्रित होकर लें। मानसिक तनाव और चिंता को विवेक द्वारा दूर करें। आहार गेहूं, चना, मोठ, मूंग को अंकुरित कर नींबू मिलाकर सुबह नाश्ते में खाएं। मूंगफली के दाने गुड़ के साथ चबा-चबा कर खाएं। पालक, सरसों, बथुआ, मटर, मेथी, हरा धनिया, पुदीना तथा टमाटर खाएं। फलों में पपीता, अंगूर, अमरूद, केला, सेब, चीकू, नींबू का सेवन करें। अनाज, दालें, मुनक्का, किसमिस, गाजर तथा पिंड खजूर दूध के साथ लें(कौशल कुमाह,हिंदुस्तान,दिल्ली,6.9.12)।

टॉन्सिलाइटिस राहत पाएं

टॉन्सिलाइटिस राहत पाएं

टॉन्सिलाइटिस राहत पाएं मौसम बदलते ही गले में खराश होना आम बात है। इसमें गले में कांटे जैसी चुभन, खिचखिच और बोलने में तकलीफ जैसी समस्याएं आती हैं। सामान्यतः लोग गले की खराश को छोटी बात समझ कर उसे अनदेखा कर देते हैं। लेकिन गले की किसी भी परेशानी को ऐसे ही नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। ये गंभीर बीमारी बन सकती है। क्या है टॉन्सिल्स - टॉन्सिल्स गले के दोनों तरफ पाए जाने वाले बादाम के आकार के अंग हैं। यह शरीर के सिक्युरिटी गार्ड के रूप में कार्य करते हैं जो कीटाणुओं, बैक्टीरिया और वायरस को हमारे गले में जाने से रोकते हैं । ये बाहर से आने वाले किसी भी रोग को हमारे शरीर में अंदर आने से रोकते हैं और बाहर के इन्फेक्शन से हमारी रक्षा करते हैं। अगर टॉन्सिल मजबूत होंगे तो वे बीमारी को शरीर में आने से तो रोकेंगे ही, साथ ही खुद भी उस इन्फेक्शन से बच जाएंगे। जब ये टॉन्सिल्स खुद ही संक्रमित हो जाते हैं, तो इन्हें टॉन्सिलाइटिस कहते हैं। इसमें गले के अंदर के दोनों तरफ के टॉन्सिल्स गुलाबी व लाल रंग के दिखाई पडते हैं। ये थोड़े बड़े और ज्यादा लाल होते हैं। कई बार इन पर सफेद चकत्ते या पस भी दिखाई देता है। टॉन्सिलाइटिस की समस्या यदि लगातार बनी रहे तो इसे ठीक नहीं माना जाता है। किस मौसम में होता है वैसे तो टॉन्सिलाइटिस इन्फेक्शन पूरे वर्ष में कभी भी हो सकता है लेकिन मौसम बदलने के दौरान खतरा ज्यादा रहता है। इन महीनों में बहुत ठंडा-गरम, तीखा आदि न खाएं तो टॉन्सिलाइटिस से बच सकते हैं। किस उम्र में खतरा ज्यादा यह किसी भी उम्र के लोगों को हो सकता है, लेकिन 14 साल से कम उम्र में इसका खतरा ज्यादा होता है। कैसे होता है - 1.बहुत तेज गर्म खाना खाने से 2.प्रदूषण, धूल-मिट्टी आदि से 3.इम्यून सिस्टम (बीमारियों से लड़ने की क्षमता) कमजोर होने पर 4.ज्यादा मिर्च-मसाले वाला तीखा और तला-भुना खाना खाने से 5.पेट खराब होने से गैस या कब्ज की लगातार शिकायत रहने पर 6.बहुत ज्यादा ठंडा खाने या पीने से, जैसे एकदम ठंडी आइसक्रीम या कोल्ड ड्रिंक लक्षण - 1.तेज बुखार 2.थकान 3.कान दर्द 4.आवाज में बदलाव और भारीपन 5.टॉन्सिल्स सूज जाना 6.गले के बाहर सूजन 7.गले में दर्द और सूजन 8.खाने-पीने और निगलने में परेशानी सामान्य उपचारDr.Swastik Suresh अधिकाँश चिकित्सक निम्न उपचार अपनाते हैं - 1.अगर बुखार न हो तो मरीज को बुखार की दवा नहीं देते हैं। 2.गले में दर्द के लिए सिर्फ गरारे करवाते हैं। 3.गले में दर्द के लिए गुनगुने पानी में नमक डालकर मरीज को उसके गरारे करने की सलाह। 4.अगर टॉन्सिलाइटिस बैक्टीरियल इन्फेक्शन से हुआ है तो पैरासिटामॉल और गरारों के साथ एंटी-बायोटिक दवाओं की सलाह। 5.६-७ दिनों में रोगी को आराम हो जाता है और १२-१४ दिनों अधिकाँश रोगी पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। 6.कई बार रोगी दवाईयां लेना शुरू तो करते हैं पर थोड़ा आराम मिलते ही दवाईयां बंद कर देते हैं। इससे फिर से रोग बढ़ने का ख़तरा बना रहता है। रोगियों को तब तक दवाईयां लेनी चाहिए जब तक पूरा कोर्स न ख़त्म हो जाए। ऑपरेशन की सलाह - - अगर साल में तीन से चार बार टॉन्सिलाइटिस हो जाय। - अगर मरीज को बोलने, खाना निगलने में बहुत ज्यादा दिक्कत होने लगे ।

स्लिप डिस्क: इससे बचने के आसान उपाय

स्लिप डिस्क: इससे बचने के आसान उपाय

स्लिप डिस्क: इससे बचने के आसान उपाय आधुनिक काल में जहां हर क्षेत्र में मानव ने प्रगति करी है और सफलता की ऊंचाइयां छुई हैं वहीं बीमारियों का शिकार होने में भी बहुत आगे हो गया है ।अगर आज के समय में बीमारियों की बात पर आयें जाए तो ऐसे अनेक रोग हैं जिन्होंने इस भागती दौड़ती जिंदगी में हमारे शरीर में न जाने क्या क्या उपद्रव मचा दिए हैं। आज लगभग हर व्यक्ति को अपने जीवन में कमर दर्द का अनुभव होता है। धीरे धीरे कमर दर्द भी एक बहुत बड़ी कष्टदायक समस्या बनी हुई है और अब ये दुनिया में एक महामारी के रूप में जानी जाने लगी है। आज हर उम्र के लोग इससे परेशान हैं और दुनिया भर में इसके आसान इलाज की खोज जारी है। यह गंभीर दर्द कई बार स्लिप डिस्क में बदलता है तो कभी-कभी इससे साइटिका भी हो सकता है। आम कारण 1. गलत ढंग से बैठना और दैनिक कामकाज करना इसके प्रमुख कारण हैं। लेट कर या झुक कर पढना या काम करना, कंप्यूटर के आगे बैठे रहना इसका कारण है। 2. वजन उठाने, अनियमित दिनचर्या, झटका लगने, अचानक झुकने, गलत तरीके से उठने-बैठने की वजह से दर्द हो सकता है। 3. सुस्त जीवनशैली, शारीरिक गतिविधियां कम होने, व्यायाम या पैदल न चलने से भी मसल्स कमजोर हो जाती हैं। बहुत ज़्यादा थकान से भी रीढ़ की हड्डी पर जोर पडता है और एक लिमिट के बाद यह समस्या शुरू हो जाती है। 4. बहुत ज़्यादा शारीरिक मेहनत, गिरने, फिसलने, दुर्घटना में चोट लगने, देर तक ड्राइविंग करने से भी डिस्क पर प्रभाव पड सकता है। 5. उम्र बढने के साथ-साथ हड्डियां कमजोर होने लगती हैं और इससे डिस्क पर जोर पडने लगता है। किस उम्र में खतरा ज़्यादा होता है- 1. आमतौर पर 30 से 50 वर्ष की उम्र में कमर के निचले हिस्से में स्लिप्ड डिस्क की समस्या हो सकती है। 2. 40 से 60 वर्ष की आयु तक गर्दन के पास सर्वाइकल वर्टिब्रा में समस्या होती है। 3. विशेषज्ञों के अनुसार अब 20-25 वर्ष के युवाओं में भी स्लिप डिस्क के लक्षण तेजी से देखे जा रहे हैं। देर तक बैठ कर कार्य करने के अलावा स्पीड में बाइक चलाने या सीट बेल्ट बांधे बिना ड्राइविंग करने से भी यह समस्या बढ रही है। अचानक ब्रेक लगाने से शरीर को झटका लगता है और डिस्क को नुक्सान हो सकता है। सामान्य लक्षण 1. नसों पर दबाव के कारण कमर दर्द, पैरों में दर्द या पैरों, एडी या पैर की अंगुलियों का सुन्न होना 2. पैर के अंगूठे या पंजे में कमजोरी 3. स्पाइनल कॉर्ड के बीच में दबाव पडने से कई बार हिप या थाईज के आसपास सुन्न महसूस करना 4. समस्या बढने पर यूरिन-स्टूल पास करने में परेशानी 5. रीढ के निचले हिस्से में असहनीय दर्द 6. चलने-फिरने, झुकने या सामान्य काम करने में भी दर्द का अनुभव। झुकने या खांसने पर शरीर में करंट सा अनुभव होना। जांच और उपचार herniated_discदर्द लगातार बम रहना, एक्स-रे या एमआरआइ, लक्षणों और शारीरिक जांच से डॉक्टर को पता चलता है कि कमर या पीठ दर्द का सही कारण क्या है और क्या यह स्लिप्ड डिस्क है।जांच के दौरान स्पॉन्डलाइटिस, डिजेनरेशन, ट्यूमर, मेटास्टेज जैसे लक्षण भी पता लग सकते हैं। कई बार एक्स-रे से भी सही कारणों का पता नहीं चल पाता। इस अवस्था में सीटी स्कैन, एमआरआइ या माइलोग्राफी (स्पाइनल कॉर्ड कैनाल में एक इंजेक्शन के जरिये) से सही-सही स्थिति का पता लगाया जा सकता है। इससे पता लग सकता है कि यह किस तरह का दर्द है। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि डॉक्टर ही बता सकता है कि मरीज को किस जांच की आवश्यकता है। स्लिप्ड डिस्क के ज्यादातर मरीजों को आराम करने और फिजियोथेरेपी से राहत मिल जाती है। फिजियोथेरेपी भी दर्द कम होने के बाद ही कराई जाती है। इसमें दो से तीन हफ्ते तक पूरा आराम करना चाहिए। दर्द कम करने के लिए डॉक्टर की सलाह पर दर्द-निवारक दवाएं, मांसपेशियों को आराम पहुंचाने वाली दवाएं या कभी-कभी स्टेरॉयड्स भी दिए जाते हैं। अधिकतर मामलों में सर्जरी के बिना भी समस्या हल हो जाती है। संक्षेप में इलाज की प्रक्रिया इस तरह है- 1. दर्द-निवारक दवाओं के माध्यम से रोगी को आराम पहुंचाना 2. कम से कम दो से तीन हफ्ते का बेड रेस्ट 3. दर्द कम होने के बाद फिजियोथेरेपी या कीरोप्रैक्टिक ट्रीटमेंट 4. कुछ मामलों में स्टेरॉयड्स के जरिये आराम पहुंचाने की कोशिश 5. परंपरागत तरीकों से आराम न पहुंचे तो सर्जरी ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन सर्जरी होगी या नहीं, यह निर्णय पूरी तरह विशेषज्ञ का होता है। ऑर्थोपेडिक्स और न्यूरो विभाग के विशेषज्ञ जांच के बाद सर्जरी का निर्णय लेते हैं। यह निर्णय तब लिया जाता है, जब स्पाइनल कॉर्ड पर दबाव बढने लगे और मरीज का दर्द इतना बढ जाए कि उसे चलने, खडे होने, बैठने या अन्य सामान्य कार्य करने में असह्य परेशानी का सामना करने पडे। ऐसी स्थिति को इमरजेंसी माना जाता है और ऐसे में पेशेंट को तुरंत अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत होती है, क्योंकि इसके बाद जरा सी भी देरी पक्षाघात का कारण बन सकती है।

पुराने जुखाम के कारण सिरदर्द रहता है

पुराने जुखाम के कारण सिरदर्द रहता है

पुराने जुखाम के कारण सिरदर्द रहता है जुकाम एक तरह की एलर्जी है, जिसमें नाक से पानी निकलने लगता है। ये कोई बीमारी नहीं, बल्कि श्वसन तंत्र में एलर्जी या इन्फेक्शन होने का एक लक्षण है जो यदि लम्बे समय तक बना रहे तो निमोनिया और श्वसन तन्त्र से जुड़ी दूसरी बीमारियों को दर्शाता है। हाई रिस्क ग्रुप - बच्चे, बूढ़े, शुगर, हाई बीपी, टीबी, दमा, हेपटाइटिस व एनीमिया के मरीज, कुपोषण के रोगी जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है व जिनमें एलर्जी की टेंडेंसी हो उन्हें जुकाम जल्दी होता है। जुकाम के लक्षणों को ऐसे पहचानें- 1. यदि नाक से निकलने वाला पानी पतला और सफेद हो तो समझें कि सामान्य जुकाम है। फिक्र की जरूरत नहीं है। 2. अगर पानी गाढ़ा हो तो समझें कि इन्फेक्शन ज्यादा हो गया है। तुरंत ही अपने डॉक्टर को दिखाएं। 3. नाक बंद हो तो वायरल व बैक्टीरियल दोनों तरह के इन्फेक्शन हो सकते हैं। वायरल इन्फेक्शन है तो स्टीम और एंटी-एलर्जिक दवा से ठीक हो जाएगा, नहीं तो आयुष इलाज या एंटीबायोटिक्स लेनी होंगी। 4. अगर स्राव हरा रेशेदार हो, तो इन्फेक्शन है। समझें कि बात बढ़ रही है और तुरंत डॉक्टर को दिखाएं। 5. अगर कफ के साथ खून भी आए तो खतरनाक है। टीबी का लक्षण हो सकता है। फौरन डॉक्टर को दिखाएं। जुकाम के कुछ सामान्य उपचार- समस्या- हल्का सर्दी जुकाम हो तो क्या करें ? उपचार- 1. दो कप पानी में एक चौथाई छोटी चम्मच सोंठ, दस तुलसी की पत्तिया, पांच छोटी पीपल और थोडा सा गुड़ मिलाकर खौला लें। जब यह अच्छी तरह खौल जाये तो चाय की तरह घूंट-घूंटकर पीने से सर्दी-जुकाम में लाभ मिलता है। 2. अपने भोजन में अदरक का प्रयोग अधिक करें। चाय, सब्जी, दाल, सलाद आदि में अदरक को लेते रहने से जुकाम की परेशानी से बचा जा सकता है। 3. विटामिन-सी के प्रयोग से जुकाम को काबू में रखा जा सकता है। अत: अपने भोजन में नींबू का प्रयोग ज़रूर करें।

दिल का दर्द पहचानें

दिल का दर्द पहचानें इसके लक्षण

दिल का दर्द पहचानें इसके लक्षण कोरोनरी हार्ट डिजीज किसी भी उम्र में हो सकती है। समय रहते इलाज करा लिया जाए तो आप दिल के दौरे जैसे खतरे से बच सकते हैं। बता रहे हैं मैक्स हॉस्पिटल के सीनियर कन्सल्टेंट (कार्डियोलॉजी) डॉं नरेश गोयल कोरोनरी धमनी रोग यानी सीएडी एक तरह का हृदय रोग है, जिसमें हमारे हृदय की धमनियों के अंदर प्लेक नाम के एक मोम जैसे पदार्थ का निर्माण होने लगता है, जिससे हमारी धमनियां सिकुड़ जाती हैं और हमारे हृदय तक ऑक्सीजन युक्त खून का प्रवाह घट जाता है। यही प्लेक जब हमारे हृदय की धमनियों के आधे हिस्से में फैल जाता है तो हमारी छाती में दर्द होने लगता है और रोजमर्रा के काम में हमें परेशानी होने लगती है। इसके अलावा छाती में कसाव और ऐंठन भी महसूस होने लगती है, जिसे एनजाइन कहते हैं। कंधे, बांह, गर्दन, दांत के जबड़े, पीठ और पेट के ऊपरी भाग में भी यह दर्द हो सकता है। सीएडी की वजह से ही दिल का दौरा पड़ता है। किसी व्यक्ति को दिल का दौरा तब पड़ता है, जब उसके प्लेक टूटने लगते हैं और धमनियों पर खून के थक्के जमने लगते हैं, जिससे हृदय की धमनियों में खून का प्रवाह बहुत कम समय में ही अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे में अगर खून का प्रवाह तुरंत पहले जैसा नहीं हुआ, तो हृदय की मांसपेशियां 20 मिनटों के बाद ही मृत होने लगती हैं। ऐसे में व्यक्ति का तुरंत इलाज करवाना चाहिए, नहीं तो सेहत से जुड़ी परेशानियों के अलावा मृत्यु तक का खतरा हो सकता है। सांस की कमी, मिचली आना, उल्टी करना, चक्कर आना आदि दिल के दौरे के लक्षण हैं। इन वजहों से सीएडी में विकास होता है धूम्रपान, बीमारी का पारिवारिक इतिहास, मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, सुस्त जीवनशैली, व्यायाम में कमी, तनाव, हाईपरलीपिडेमिया (खून में लीपिड की मात्रा का बढ़ना)। समय रहते करा लें इलाज सही समय पर हृदय से जुड़ी इस परेशानी का इलाज न कराया जाए तो हृदय काम करना बंद कर सकता है। इससे हृदय की पम्पिंग क्षमता कम हो जाती है, तो फेफड़ों में खून का जमाव होने लगता है और व्यक्ति को सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। इसके अलावा हृदय की गति अचानक से रुक जाना भी इसकी एक बड़ी समस्या है। कई बार मरीज को यह आभास नहीं हो पाता कि उन्हें हदय से जुड़ी कोई परेशानी है। इसलिए शुरुआत में ही बीमारी की पहचान हो जाए तो इस बीमारी का इलाज करना संभव होगा। फिर भी अगर बीमारी की पहचान नहीं हो पा रही हो और दवाइयों से भी कोई फायदा नहीं हो पा रहा हो, तो कार्डिएक रिसिंक्रोनाइजेशन थेरेपी की मदद ली जा सकती है। वहीं दिल के दौरे पड़ने पर खून के थक्कों को हटाने के साथ एंजियोप्लास्टी (अवरुद्ध धमनियों को खोलने की एक तकनीक) एक सुरक्षित तरीका है। अपनाएं ये उपाय अपनी जीवनशैली में कुछ जरूरी बदलाव कर आप इस बीमारी से बच सकते हैं, जिसमें वजन को नियंत्रित रखने के साथ निम्न बातों पर अमल करने की सलाह दी जाती है। स्वस्थ डाइट अपनाएं एक स्वस्थ डाइट एक स्वस्थ जीवनशैली का अहम हिस्सा होती है। एक दिन की डाइट में 25-35 प्रतिशत से ज्यादा कैलोरी नहीं होनी चाहिए। इसके साथ ही स्वस्थ डाइट में घुलनशील फाइबर होता है। फाइबर पाचन तंत्र को कोलेस्ट्रॉल सोखने से रोकता है। ओटमील, जई का चोकर, सेब, केले, संतरे, नाशपाती, आलूबुखारे, काबुली चने, राजमा, दाल, लोबिया में फाइबर प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसके अलावा खाने में नमक संतुलित मात्रा में होनी चाहिए, साथ ही खाने में ऊपर से नमक कभी न डालें। नियमित तौर पर अल्कोहल का सेवन करने वाले पुरुषों को दिन में दो बार से ज्यादा ड्रिंक नहीं लेनी चाहिए। शारीरिक तौर पर रहें सक्रिय नियमित रूप से शारीरिक श्रम हृदय से जुड़ी कई बीमारियों (जैसे उच्च रक्तचाप, अत्यधिक वजन) के खतरे को कम कर देता है। यही नहीं, यह मधुमेह के खतरे को भी कम करता है। शारीरिक रूप से सक्रिय रहने के लिए आप रोज तेज-तेज चलें, सीढियां चढ़ें या कोई खेल खेलें। जॉगिंग, स्विमिंग, बाइकिंग, वॉकिंग जैसे एरोबिक व्यायाम भी आपके हृदय को स्वस्थ बनाते हैं। एक हफ्ते में 150 मिनट यानी करीब ढाई घंटे के हल्के व्यायाम या 75 मिनट यानी सवा घंटे के कड़े व्यायाम की सलाह दी जाती है। धूम्रपान से बचें धूम्रपान दिल का दौरा पड़ने का एक बहुत बड़ा कारण है। आंकड़े बताते हैं कि 65 साल के कम उम्र के एक तिहाई लोगों में क्रोनिक हर्ट डिजीज का मुख्य कारण धूम्रपान होता है। वहीं जिन लोगों ने समय रहते ही धूम्रपान छोड़ा है, उनमें कोरोनरी धमनी रोग से उत्पन्न मृत्यु का खतरा करीब आधा कम हो गया। यह भी देखा गया है कि जो लोग घूम्रपान नहीं करते, उनका इलाज धूम्रपान करने वाले लोगों से ज्यादा प्रभावी तरीके से हो पाता है। तनाव से रहें दूर रिसर्च बताते हैं कि मानसिक तनाव भी दिल का दौरा पड़ने का एक अहम कारण है। कई बार तनाव दूर करने के लिए लोग ड्रिंक, धूम्रपान या ओवरईटिंग का सहारा लेने लगते हैं, जिससे हृदय की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसलिए तनाव से दूर रहें और हृदय को स्वस्थ रखें।

होठों में कैंसर

होठों में कैंसर के लक्षणों को कैसे पहचानें

होठों में कैंसर के लक्षणों को कैसे पहचानें होठों का कैंसर खतरनाक रोग है। यह मुंह के कैंसर का ही एक प्रकार है। इससे पीडि़त व्यक्ति को खाने-पीने में परेशानी हो जाती है। साथ ही इससे सुंदरता पर भी असर पड़ता है। लिप कैंसर सूरज की किरणों में ज्यादा समय तक रहने से भी हो सकता है। यह होठों की कोशिकाओं में फैलने वाला संक्रमण होता है।होठों के कैंसर का शिकार अधिकतर तम्बाकू या गुटखेका सेवन करने वाले लोग होते हैं। ऐसे लोग कई बार तम्बाकू को होठों के अंदर ही दबाकर सो जाते हैं, जिससे होठों का कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। होठों या मुंह के कैंसर का जल्द पता नहीं चल पाता। यदि इसका पता चल जाएं तो उपचार आसान होता है। इस लेख के जरिए हम आपको बताते हैं होठों के कैंसर को पहचानने के तरीकों के बारे में। होठों के कैंसर के लक्षण इस कैंसर से पीडि़त व्यक्ति के होठों पर घाव या जख्म बन जाते हैं। अधिकतर यह समस्या नीचे के होठपर होती है। इसका उपचार आसान नहीं होता। इसमें खून भी निकलता है, कुछ लोगों का यह अनुभव बहुत ही दर्दभरा होता है। यह घाव कई बार होठ के अलावा मुंह में अंदर की तरफ बढ़ जाता है, जिससे और ज्यादा परेशानी बढ़ जाती है। हालांकि यह समस्या अधिकतर नीचे के होठ पर ही होती हैं, लेकिन कई बार यह संक्रमण ऊपर के होठ पर भी फैल जाता है। होठों के कैंसर के अन्य लक्षण निम्नलिखित है। *.दांतों का ढीला हो जाना *.होठों से या उसके आस-पास से खून निकलना *.सूजन के साथ होठों में दर्द रहना *.आवाज का अचानक बदल जाना *.गले और मुंह में दर्द रहना *.किसी चीज को खाने या पीने में परेशानी होना *.होठों पर लाल रंग के दाग या सफेद चकते हो जाना *.चबाते या बोलते समय, जीभ हिलाते समय परेशानी होना *.कान में दर्द या गले में घाव होना होठों के कैंसर के कारण *.ओरल सेक्स करने से होठों का कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है। *.सूर्य की किरणों में ज्यादा समय तक रहने से भी होठों का कैंसर हो सकता है। *.तम्बाकू और गुटखे का सेवन करने वालों को होठों का कैंसर होने का खतरा बना रहता है। *.धूम्रपान के कारण भी होठों का कैंसर होता है।पाइप से धूम्रपान जैसे हुक्का आदि पीने वालों का यह समस्या ज्यादा होती है। *.शराब का सेवन भी होठों के कैंसर का कारण होता है। कैसे होती है जांच किसी चिकित्सक के यहां जाने पर वह आपके होठों केघावों और जख्मों की जांच करता है। ऐसे में वह आपसे यह जानकारी करता है कि पिछले कितने समय से आप इस समस्या से ग्रस्त है। आपके होठों पर जख्म होने का कारण कुछ नया खाने, चुंबन करने या फिर कोई दवाई भी हो सकती है। यदि यह कैंसर नहीं है तो आपकी यह समस्या कुछ ही दिनों में दवाई के सेवन से ठीक हो जाएगी। होठों के कैंसर से कैसे बचें होठों के कैसर यानी लिप कैंसर से बचाव का सबसे अच्छा तरीका यह है कि तम्बाकू और गुटखे के सेवन के साथ ही धूम्रपान करने से बचा जाएं। प्रचुर मात्रा में फल और सब्जी खाने से लिप कैंसर होने का खतरा कम रहता है।

हृदय रोग

महामारी का रूप ले रहा हृदय रोग

महामारी का रूप ले रहा हृदय रोग लक्षण: सीने में दर्द होना। यह दर्द निम् स्थानों में हो सकता है। सीने के बीचों-बीच सीने के बाईं तरफ या कभी कभी दाईं तरफ गर्दन में बाएं जबड़े में पीठ के बीचों-बीच कई बार दर्द उपरोक्त किसी भी स्थान से शुरू होकर उपरोक्त किसी भी स्थान की तरफ फैलता है और यह फैलता हुआ दर्द निश्चित रूप से हृदय रोग का कारण ही होता है। जब तक कि चिकित्सक जांच करके हृदय रोग की संभावना से इंकार न कर दें। यह दर्द निम्न प्रकार का हो सकता है- तेज दर्द जो कि कोई एक जगह न हो रहा हो। भारीपन जलन महसूस होना जकड़न वजन रख दिया हो किसी ने जैसे निचौउ दिया हो। सांस फूलना घुटन सी महसूस होना यह दर्द कई बार पसीने, घबराहट, बैचेनी, धड़कन आदि के साथ होता है। जैसे कि पहले बताया गया है कि एंजाइना में यह दर्द 5-10 मिनट तक हो सकता है। देर तक रहता है। इसकी तीव्रता भी अधिक होती है। कई लोगों को बहुत ठंडा पसीना आता है। कुछ को साथ में उल्टी जैसा या उल्टियां भी होती हैं। कुछ को साथ में चक्कर आता है। क्या करें- यदि आपको इस बात का थोड़ा सा भी अंदेशा हो कि यह तकलीफ कुछ अजीब सी है, पहले कभी नहीं हुई या शायद हार्ट अटैक भी हो सकती है तो आपको तुरंत ही हृदय रोग विशेषज्ञ की सलाह लेनी चाहिए। तुरंत उपचार के लिए- एक डिसिप्रिन की गोली को चबाकर लिया जा सकता है और तुरंत ही हास्पिटल (जो कि हृदय रोग का उपचार करता है) पहुंचाना चाहिए। अध्ययनों ने इस बात की पुष्टि की है यदि हार्ट अटैक के मरीज को तकलीफ शुरू होने के दो घंटे की भीतर ही उचित उपचार मिल जाए तो 25-30 प्रतिशत लोगों का हार्ट अटैक पूर्ण रूप से टल सकता है। बस आवश्यकता इस बात की है हम इस बीमारी के लक्षण को तुरंत पहचानें और अतिशीघ्र हृदय रोग विशेषज्ञ के पास पहुंचे। करीब 30-50 : लोगों को हार्ट अटैक के 24-48 घंटे पहले से कुछ तकलीफ महसूस होना शुरू हो जाती है पर वो इसे पहचान नहीं पाते और इस गंभीर रोग का शिकार हो जाते हैं। यदि हम इस लक्षणों को पहले ही पचानन लें तो त्वरित उपचार से हार्ट अटैक से बच सकते हैं।

एलर्जिक रायनाइटिस के लक्षण आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति

एलर्जिक रायनाइटिस के लक्षण पहचानें

एलर्जिक रायनाइटिस के लक्षण पहचानें हम लोग अक्सर छींक, नाक में खुजली, बंद नाक और नाक के बहने को साधारण सर्दी-जुकाम समझ लेते हैं, जबकि यह एलर्जिक रायनाइटिस भी हो सकता है। साधारण सर्दी-जुकाम का प्रमुख कारण वायरस होता है। इसके लक्षणों में नाक का बहना, साधारण बुखार हो सकता है जबकि एलर्जिक रायनाइटिस में ये लक्षण होते हैं- आपको एक साथ बार-बार छींक पर छींक आती रहती है। माँसपेशियों में ऐंठन, दर्द और बुखार के कोई लक्षण नहीं होते हैं। नाक से बहने वाला तरल म्यूकस पानी जैसा ही बहता है। नाक, कान, गले में खुजली का एहसास होता रहता है। आँखों से पानी बहता रहता है। एलर्जिक रायनाइटिस के लंबे समय तक बने रहने पर कामकाज पर बुरा असर होता है। एलर्जिक रायनाइटिस के साथ कन्जेक्टिवाइटिस, साइनसाइटिस, नेजल पॉलिप और दमा रोग भी हो सकते हैं। एलर्जिक रायनाइटिस के उपचार में कोई एंटीबायोटिक और दर्द निवारक गोलियों की जरूरत नहीं होती है। इसके इलाज हेतु डॉक्टर के बताए अनुसार एंटीएलर्जिक गोलियों का नियमित सेवन करना चाहिए।

पीलिया का इलाज़

पीलिया बीमारी को दूर करें

पीलिया बीमारी को दूर करें पीलिया बीमारी को कैसे पहचानें? पीलिया (वायरल हेपेटाइटिस-ए तथा ई) प्रदूषित जल व भोजन से फैलने वाला संक्रामक रोग है। विषाणुओं के शरीर में प्रवेश करने के 15 से 50 दिनों में इस बीमारी के लक्षण प्रकट होते हैं। पीलिया का मुख्य लक्षण है, भोजन का स्वाद न आना, भूख न लगना, पीले रंग की पेशाब होना, उल्टी लगना या होना, सिर में दर्द होना, कमजोरी और थकावट लगना, पेट के दाहिने तरफ ऊपर की ओर दर्द होना, आंखें और त्वचा का रंग पीला होना आदि है। सभी को इससे नुकसान होता है, लेकिन इससे गर्भवती महिलाओं को अधिक खतरा होता है। उन्हें विशेष सावधानी बहुत जरूरी है। लक्षण दिखने पर क्या करें? तत्काल मेडिकल काॅलेज अस्पताल या निकट के स्वास्थ्य केन्द्र से सम्पर्क कर उपचार शुरू करें। यदि स्वास्थ्य केन्द्र तक जाने में असुविधा हो तो टोल फ्री नम्बर 108, किसी भी फोन से डायल कर निःशुल्क संजीवनी एक्सप्रेस एम्बुलेंस सेवा का उपयोग करें। चिकित्सकीय सलाह व अस्पताल के सम्बन्ध में जानकारी हेतु 104 स्वास्थ्य परामर्श सेवा टोल फ्री नम्बर पर किसी भी फोन से सलाह प्राप्त करें। रोगी को संपूर्ण आराम करने दे, उबला हुआ पानी और बिना तेल, घी, मसाले का सुपाच्य भोजन दे। पीलिया से बचाव जिसमें पीलिया के लक्षण दिखें, उसे तुरंत डाॅक्टरी उपचार शुरू करना चाहिए। बीमारी से बचने के लिए सभी स्वस्थ लोगों को भी सावधानी बरतना चाहिए। इससे बचने के लिए सबसे जरूरी उपाय है, पानी को 20 मिनट तक उबालकर, ठंडा कर पीना चाहिए, या 20 लीटर पीने के पानी में एक क्लोरीन गोली पीसकर डालें एवं 30 मिनट बाद उपयोग करें। शौच के पश्चात् एवं भोजन के पहले हाथ साबुन से धोएं। खुले में रखी, बासी व सड़ी-गली खाद्य सामग्री का सेवन न करें। पीलिया के विषाणु, मरीज के मल के साथ विसर्जित होते हैं, अतः खुले में शौच न करें, न किसी को करने दें। ऐसा होने पर तुरंत मल की सफाई आवश्यक है। बार‘-बार अपने हाथों को साबुन एवं पानी से साफ करें। रक्त, मूत्र अथवा लार से संपर्क होने की स्थिति में, हाथ साफ किया जाना जरूरी है। भेाजन पकाने और खाने के पूर्व, हमेशा हाथ साफ करें। हेपेटाइटिस से ग्रस्त व्यक्ति द्वारा अन्य लोगों के लिए भोजन नहीं बनाया जाए अथवा परोसा नहीं जाना चाहिए। उसके बचे भोजन को फेंक दें। संक्रमित क्षेत्र में कच्चे भोजन यथा सलाद आदि को उबले पानी से साफ कर धोकर ही प्रयोग करें। कोशिश करें की अच्छी तरह से पका हुआ भोजन ही ग्रहण करें। खुले कुओं से यदि पानी लिया जाता है तो उनमें स्वास्थ विभाग से परामर्श कर पोटेशियम परमैगनेट डालकर जल का संक्र्रमण मुक्त करें। पीलिया काघरेलू उपचार 1.कोकिलाक्ष (छत्तीसगढ़ में मोखला कांटा के नाम से प्रसिद्ध है, हिन्दी में इसे तालमखाना कहते हैं) की हरी पत्तियों का रस (उबालकर) 3-4 चम्मच दिन में दो-तीन बार 3-3 चुटकी भर सेंधा नमक के साथ लें। 2.भूई आंवला पंचांग का रस (खाली पेट में) 3.मूली के हरे पत्ते का रस (खाली पेट में) 4.हरा टमाटर, कालीमिर्च और नमक को मिलाकर घोल बनाकर 5.लौकी के पत्ती का रस (खाली पेट में) 6.जौं का पानी (खाली पेट में) 7.गन्ने का स्वच्छ रस (गन्ने का रस का छोड़कर अन्य सभी का प्रयोग खाली पेट करने पर अधिक उपयोगी) उपरोक्त सभी पीलिया रोग के उपचार में सहायक के रूप मेें प्रयोग किया जाता है। उपरोक्त सभी लीवर को स्वयं ठीक होने में सहायक होते है।

गठिया का इलाज आयुर्वेद चिकित्सा से

गठिया

गठिया जब हड्डियों के जोडो़ में यूरिक एसिड जमा हो जाता है तो वह गठिया का रूप ले लेता है। यूरिक एसिड कई तरह के आहारों को खाने से बनता है। रोगी के एक या कई जोड़ों में दर्द, अकड़न या सूजन आ जाती है। इस रोग में जोड़ों में गांठें बन जाती हैं और शूल चुभने जैसी पीड़ा होती है, इसलिए इस रोग को गठिया कहते हैं। यह कई तरह का होती है, जैसे-एक्यूट, आस्टियो, रूमेटाइट, गाउट आदि। गठिया के लक्षण गठिया के किसी भी रूप में जोड़ों में सूजन दिखाई देने लगती है। इस सूजन के चलते जोड़ों में दर्द, जकड़न और फुलाव होने लगता है। रोग के बढ़ जाने पर तो चलने-फिरने या हिलने-डुलने में भी परेशानी होने लगती है। इसका प्रभाव प्राय घुटनों, नितंबों, उंगलियों तथा मेरू की हड्डियों में होता है उसके बाद यह कलाइयों, कोहनियों, कंधों तथा टखनों के जोड़ भी दिखाई पड़ता है। किसको होता है आर्थराइटिस? गठिया महिलाओं से ज्‍यादा पुरुषों को होता है। यह पुरुषों को 75 की उम्र के बाद होता है। महिलाओं में यह मेनोपॉज के बाद होता है। अगर आपके माता-पिता को यह बीमारी है तो आपको भी 20 प्रतिशत चांस होगा कि यह बीमारी हो जाए। आर्थराइटिस के जोखिम कारक महिलाओं में एस्ट्रोजन की कमी के कारण, शरीर में आयरन व कैल्सियम की अधिकता, पोषण की कमी, मोटापा, ज्‍यादा शराब पीना, हाई ब्‍लड प्रेशर और किडनियों को ठीक प्रकार से काम ना करने की वजह से गठिया होता है। किस तरह से दिखता है गठिया: 1. पैरों के अंगूठों में सूजन पैरों में गठिया का असर सबसे पहले देखने को मिलता है। अंगूठे बुरी तरह से सूज जाते हैं और तब तक ठीक नहीं होते जब तक की उनका इलाज ना करवाया जाए। 2. उंगलियों का होता है यह हाल उंगलियों के जोड़ में यूरिक एसिड के क्रिस्‍टल जमा हो जाते हैं। इससे उंगलियों के जोडो़ में बहुत दर्द होता है जिसके लिये डॉक्‍टर का उपचार लेना पड़ता है। 3. दर्द से भरी कुहनियां गठिया रोग कुहनियां तथा घुटनों में हो सकता है। इसमें कुहनियां बहुत ही तकलीफ देह हो जाती हैं और सूजन से भर उठती हैं। कैसा हो आहार? संतुलित और सुपाच्य आहार लें। चोकर युक्त आटे की रोटी तथा छिलके वाली मूंग की दाल खाएं। हरी सब्जियों में सहिजन, ककड़ी, लौकी, तोरई, पत्ता गोभी, गाजर, आदि का सेवन करें। दूध और उससे बने पदार्थों का सेवन करें। दवाइयों से ठीक करें गठिया अगर दर्द ज्‍यादा बढ़ गया हो तो डॉक्‍टर को दिखा कर दवाइयां खाएं। यह सूजन और दर्द को कम करती हैं तथा खून में यूरिक एसिड की मात्रा को कम करके जोडो़ में इसे जमा होने से बचाती हैं।

मस्तिष्‍‍क ज्‍वर (मेनिनजाईटिस

मस्तिष्‍‍क ज्‍वर (मेनिनजाईटिस)

मस्तिष्‍‍क ज्‍वर (मेनिनजाईटिस) मस्तिष्‍‍क ज्‍वर (मेनिनजाईटिस) मस्तिष्‍क ज्‍वर मेनिनजाईटिस एक बहुत खतरनाक संक्रामक रोग है जो किनाईसिरिया मेनिनजाईटिस (मेनिनगोकोकल) नामक जीवाणु के शरीर मे प्रवेश पाने और पनपने के कारण होता है। मस्तिष्‍क और रीड की हड़डी मे रहने वाली नाडियो की झिल्‍ली पर सूजन आ जाती है। यह रोग पूरे वर्ष होता रहता है। इसमे आप चलन भाषा मे गर्दन तोड बुखार भी कहते है। रोग कैसे फैलता है मरीज से सीधे सम्‍पर्क मे आने के तथा या उसके थूक अथवा छींक द्वारा सांस के माध्‍यम से यह रोग एक दूसरे व्‍यक्ति मे फैलता है। रोग के जीवाणु के शरीर मे प्रवेश करने के 3-4 दिन के पश्‍चात रोग के लक्षण प्रकट को जाते है। रोग उन व्‍यक्तियो द्वारा भी फैल जाता है जिनके नाक व गले मे इस बीमारी के जीवाणु बिना रोग उत्‍पन्‍न किये मौजूद रहते है। ये व्‍यक्ति प्रत्‍यक्ष रूप से स्‍वस्‍थ होते है, किन्‍तु इनके खांसने अथवा छींकने से रोग के जीवाणु वायुमण्‍डल मे प्रवेश पा जाते है एवं श्‍वांस द्वारा अन्‍य व्‍यक्ति मे प्रविष्‍ट होकर रोग उत्‍पन्‍न करते है। लक्षण - 1. तेज बुखार के साथ, तेज सिर दर्द एवं जी मचलना उल्टियां इस बीमारी के प्रमुख लक्षण है। 2. लक्षणो के अचानक प्रकट होना एवं रोगी की दशा मे तेजी की गिरावट आना इस बीमारी की विशेषता है। 3. एक स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति को अचानक तेज बुखार, सिर दर्द एवं उल्टिया होने पर इस बीमारी का संदेह होना आवश्‍यक है। इसके अलावा गर्दन जकडना एवं शरीर पर लाल रंग के चकते पडना भी इस बीमारी के प्रमुख लक्षण है। रोग का प्रभाव - शीघ्र उपचार ने होने पर रोगी की दशा तेजी से बिगड‍ती है। कुछ ही घन्‍टो मे रक्‍तचाप तेजी से गिर जाता है और नब्‍ज कमजोर पड जाती है। रोगी बेहोशी की अवस्‍था के चला जाता है। इस बीमारी के लक्षणों का क्रम इतनी गति से चलता है कि शीध्र निदान एवं उपचार ही रोगी का इस जानलेवा बीमारी से बचा सकता है। रोग किसको प्रभावित करता है ? यह रोग किसी भी आयु वर्ग को प्रभावित कर सकता है लेकिन प्रकोप मुख्‍यतयाः बच्‍चो एवं किशोर वर्ग पर काफी अधिक होता है। घनी आबादी वाली गन्‍दी बस्तियो, जिनमे तंग मकानों मे अधिक लोग रहते है छात्रावास, बैरक एवं शरणार्थी शिविरों मे यह बीमारी तेजी से फेलती है। बचाव के उपाय - बचाव ही सर्वोत्‍तम उपचार है ऐसे घातक रोग से बचना ओर इसके प्रसार को रोकना सम्‍भव है। 1. भीड-भाड से यह रोग फेलता है अतः यथा सम्‍भव भीड-भाड वाले स्‍थानों से बचना चाहिए। 2. घरो के कमरों में शुद्व ताजा हवा व प्रकाश आने की समुचित व्‍यवस्‍था होनी चाहिए। 3. चूकि यह संक्रामक रोग है अतः रोगी को अलग रखना बहुत जरूरी होना चाहिए। 4. रोगी के नाक मुंह या गले से निकलने वाले स्‍ञाव को उसके मुंह व नाक पर साफ कपडा रख कर, सम्‍पर्क मे आने वाले व्‍यक्तियो को रोग की छूत से बचाया जा सकता है। 5. रोगी की देखभाल करने वाले व्‍यक्तियो की भी छूत से बचाव हेतु अपने मुंह एवं नाक पर साफ कपडा रखना चाहिए। 6. रोगी के परिवार ओर सम्‍पर्क मे आने वाले कोट्राईमोक्‍साजोल (सेप्‍ट्रान) की गोलिया का सेवन कर रोग से बच सकते है। वयस्‍क को दो गोली सुबह शाम, पाच वर्ष तक के बच्‍चो के लिए 1/2 गोली सुबह व शाम, स्‍कुल जाने वाले बच्‍चो को 1 गोली सुबह व शाम चार दिन तक नियमित रूप से लेनी चाहिए। ये औषधियां चिकित्‍सक की सलाह से लेनी चाहिए। 7. रोगी के निरन्‍तर निकट सम्‍पर्क मे रहने वाले चिकित्‍सको एवं पेरामेडिकल कर्मचारियो को मस्तिष्‍क ज्‍वर निरोधक टीका लगवाना उपयोगी है इस टीके स 5-7 दिन मे रोग निरोधक क्षमता पैदा हो जाती है।

Sunday, October 6, 2019

डेंगू की जानकारी


डेंगू
स्वास्थ्य    डेंगू
English


विवरण सर्वेक्षण
संक्रमण के जोखिम वाले क्षेत्रों में रहने वाली दुनिया की एक तिहाई से अधिक आबादी वाले लोगों के लिए डेंगू विषाणु उष्णकटिबंध (Tropics) और उपोष्णकटिबंधीय (Subtropics) में बीमारी और मृत्यु का मुख्य कारण है। हर साल 40 करोड़ लोग इस से संक्रमित होते हैं। डेंगू, मच्छरों से संबंधित 4 विषाणुओं में से किसी एक के कारण होता है।

डेंगू विषाणु से संक्रमण को रोकने के लिए अभी तक कोई टीके नहीं हैं और सबसे प्रभावी सुरक्षात्मक उपाय है, मच्छर के काटने से बचना। संक्रमण का शुरू में पता लगते ही शीघ्र उपचार करने से काफी हद तक चिकित्सा समस्याओं और मृत्यु के जोखिम को कम किया जा सकता है।



1950 के दशक से ही डेंगू एक विश्वव्यापी समस्या के रूप में उभरा है।

डेंगू क्या है?
डेंगू एक बीमारी है जो चार संबंधित डेंगू विषाणु (डीईएनवी 1, डीईएनवी 2, डीईएनवी 3, या डीईएनवी 4) में से किसी एक के कारण होता है। संक्रमित मच्छर के काटने से विषाणु मनुष्यों में फैलता है। पश्चिमी गोलार्ध में, एडीज़ एजिप्टी (Aedes aegypti) मच्छर डेंगू विषाणु का सबसे महत्वपूर्ण ट्रांसमीटर या रोगवाहक है। यह अनुमान है कि हर साल दुनिया भर में डेंगू के 10 करोड़ से अधिक मामले हैं।

डेंगू रक्तस्रावी बुखार (DHF) क्या है?
डेंगू रक्तस्रावी बुखार डेंगू संक्रमण का अधिक गंभीर रूप है। अगर इसे समय पर न पहचाना और इसका समय पर ढंग से इलाज न किया जाए तो यह घातक हो सकता है। डेंगू रक्तस्रावी बुखार उसी विषाणु के संक्रमण के कारण होता है जो डेंगू बुखार का कारण बनता है। अच्छे चिकित्सा प्रबंधन के साथ, डेंगू रक्तस्रावी बुखार (DHF) के कारण मृत्यु दर 1% से कम हो सकती है।

डेंगू और डेंगू रक्तस्रावी बुखार कैसे फैलता है?
डेंगू, एडीज़ मच्छर के काटने से लोगों में फैलता है जो डेंगू विषाणु से संक्रमित होता है। मच्छर डेंगू विषाणु से तब संक्रमित हो जाता है जब वह ऐसे व्यक्ति को काटता है जिसके रक्त में डेंगू विषाणु होता है। व्यक्ति को डेंगू बुखार या डेंगू रक्तस्रावी बुखार के लक्षण हो सकते हैं, या उनके कोई लक्षण नहीं हो सकते हैं।

लगभग एक सप्ताह के बाद, मच्छर एक स्वस्थ व्यक्ति को काटकर विषाणु को आगे अन्य लोगों में फैला सकता है। व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में डेंगू सीधे नहीं फैल सकता है।

रोग के लक्षण क्या हैं?
डेंगू बुखार के प्रमुख लक्षण तेज बुखार, तेज सिरदर्द, आंखों के पीछे गंभीर दर्द, जोड़ों में दर्द, मांसपेशियों और हड्डियों में दर्द, दाने और हल्का रक्तस्राव है (जैसे, नाक या मसूड़ों से खून आना, आसान चोट लगना)। आम तौर पर, छोटे बच्चों और जिनको पहले डेंगू संक्रमण हुआ हो, उनमें बड़े बच्चों और वयस्कों की तुलना में यह मामूली बीमारी होती है।

डेंगू रक्तस्रावी बुखार में बुखार होता है जो सामान्य लक्षणों और डेंगू बुखार के अनुरूप लक्षण के साथ 2 से 7 दिनों तक रहता है। जब बुखार कम हो जाता है, लगातार उल्टी, गंभीर पेट दर्द और सांस लेने में मुश्किल जैसे लक्षण हो सकते हैं।



यह 24 से 48 घंटे की अवधि की शुरुआत है जब सबसे छोटी रक्त वाहिकाएं (कोशिकाएं) अत्यधिक पारगम्य ("छिद्रयुक्त") हो जाती हैं, जिससे द्रव घटक रक्त वाहिकाओं से पेरिटोनियम (फेफड़ों में द्रव का भर जाना) से बचने की अनुमति देता है। इससे संचार प्रणाली की विफलता हो सकती है और झटका, मृत्यु के बाद, संचार विफलता को ठीक नहीं किया जाता है।

इसके अलावा, डेंगू रक्तस्रावी बुखार वाले रोगी में बिंबाणु (प्लेटलेट) की संख्या कम हो जाती है और आसानी से या अन्य प्रकार की त्वचा के रक्तस्राव की प्रवृत्ति, नाक या मसूड़ों से खून बहना और संभवतः आंतरिक रक्तस्राव होता है।

डेंगू का इलाज क्या है?
डेंगू संक्रमण के उपचार के लिए कोई विशिष्ट दवा नहीं है। जिन व्यक्तियों को लगता है कि उन्हें डेंगू है, उन्हें एसिटामिनोफेन के साथ एनाल्जेसिक (दर्द निवारक) का उपयोग करना चाहिए और एस्पिरिन से बचना चाहिए। उन्हें आराम करना चाहिए, बहुत सारे तरल पदार्थ पीने चाहिए, और डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए।

यदि वे बहुत खराब महसूस करते हैं और उन्हें बुखार कम होने के बाद 24 घंटों में उल्टी और गंभीर पेट दर्द होता है, तो उन्हें मूल्यांकन के लिए तुरंत अस्पताल जाना चाहिए।

क्या डेंगू रक्तस्रावी बुखार (DHF) के लिए एक प्रभावी उपचार है?
डेंगू बुखार के साथ, डेंगू रक्तस्रावी बुखार के लिए कोई विशिष्ट दवा नहीं है। हालांकि यदि इसका शुरुआत में ही नैदानिक ​​निदान किया जाए तो द्रव प्रतिस्थापन चिकित्सा द्वारा प्रभावी ढंग से इलाज किया जा सकता है। डेंगू रक्तस्रावी बुखार का प्रबंधन करने के लिए अक्सर अस्पताल में भर्ती होने की जरुरत होती है।

डेंगू का प्रकोप कहां हो सकता है?
डेंगू का प्रकोप मुख्यतः उन क्षेत्रों में होता है जहाँ एडीज़ होते हैं। एजिप्टी (कभी-कभी Ae। albopictus) मच्छर भी रहते हैं। इसमें दुनिया के अधिकांश उष्णकटिबंधीय शहरी क्षेत्र शामिल हैं।

डेंगू होने के जोखिम को कम करने के लिए क्या किया जा सकता है?
डेंगू से बचाव के लिए कोई टीकाकरण नहीं है। एडीज़ के साथ प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों के लिए सबसे अच्छा निवारक उपाय उन जगहों को खत्म करना है जहां मच्छर उसके अंडे देता है, मुख्य रूप से कृत्रिम बरतन जिसमें पानी रखते हैं।



वर्षा के पानी को इकट्ठा करने के लिए (उदाहरण के लिए, प्लास्टिक के डब्बे, 55-गैलन ड्रम, बाल्टी, या प्रयुक्त ऑटोमोबाइल टायर) उसे ढक के रखना चाहिए। पालतू जानवरों के पानी के बर्तनों और ताजे फूलों को सप्ताह में कम से कम एक बार (अंडे को हटाने के लिए) साफ़ और खाली किया जाना चाहिए। यह मच्छर के अंडे और लार्वा को खत्म करेगा और इन क्षेत्रों में मौजूद मच्छरों की संख्या को कम करेगा।

एयर कंडीशनिंग या खिड़कियों और दरवाजे के शीशों को बंद या कम उपयोग करने से घर के अंदर मच्छरों के आने का खतरा कम हो जाता है। कीटनाशक दवाई का उचित प्रयोग त्वचा और कपड़ों पर सक्रिय संघटक के रूप में करने से मच्छरों द्वारा काटे जाने के जोखिम को 20% से 30% तक कम किया जा सकता है।

अंतरराष्ट्रीय यात्रियों में डेंगू संक्रमण का जोखिम थोड़ा कम होता है। यदि महामारी चल रही है या यात्री बिना एयर कंडीशनिंग या स्क्रीन वाली खिड़कियों और दरवाजों वाले घरों में रह रहे हैं तो जोखिम बढ़ जाता है।

आप डेंगू रक्तस्रावी बुखार (DHF) की महामारी को कैसे रोक सकते हैं?
डेंगू की रोकथाम सामुदायिक-आधारित, एकीकृत मच्छर नियंत्रण पर है, जिसमें कीटनाशकों पर सीमित निर्भरता है। महामारी की बीमारी को रोकने के लिए डेंगू बुखार / डीएचएफ के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए समन्वित सामुदायिक प्रयास की आवश्यकता है, इसे कैसे पहचाना जाए और इसे फैलाने वाले मच्छर को कैसे नियंत्रित किया जाए। निवासी अपने बगीचे और आँगन को रुके हुए पानी से मुक्त रखने के लिए जिम्मेदार है जहाँ मच्छरों पैदा हो सकते हैं।

यात्रा और डेंगू का प्रकोप
डेंगू वाले क्षेत्रों का दौरा करते समय अपने जोखिम को कैसे कम करें
अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों को डेंगू संक्रमण का खतरा क्षेत्र में संचरण के साथ-साथ मच्छरों के संपर्क के आधार पर भिन्न हो सकता है। प्रकोप या महामारी होने पर आप अधिक जोखिम में होते हैं। यदि आपके होटल या रिज़ॉर्ट में एयर कंडीशनिंग या खिड़कियां और दरवाजे सुरक्षित नहीं हैं, तो आप उच्च जोखिम में हो सकते हैं। आपको कीटनाशक दवाई का उपयोग करने और किसी भी दिखने वाले मच्छरों को मारने जैसी सावधानी बरतनी चाहिए।

कीटनाशक दवाई को त्वचा और कपड़ों पर लगाया जा सकता है। पर्मेथ्रिन का उपयोग कपड़े पर करना भी एक अच्छा विकल्प है (पूर्व-उपचार या आप खुद का इलाज कर सकते हैं)। कुछ स्थानिक विकर्षक / कीटनाशक उत्पाद (मच्छर कॉइल, प्लग-इन या ब्यूटेन संचालित उपकरण), आपके आस-पास मच्छरों के जोखिम को कम करने में मदद कर सकते हैं।

रोकथाम
डेंगू संक्रमण के अपने जोखिम को कैसे कम करें:
डेंगू के खिलाफ कोई टीकाकरण उपलब्ध नहीं है, और डेंगू संक्रमण के इलाज के लिए कोई विशिष्ट दवाइयाँ नहीं हैं। यदि आप ऐसी जगह पर रहते या एक स्थानिक क्षेत्र की यात्रा करते हैं जहाँ डेंगू का अधिक प्रकोप है तो रोकथाम के सबसे महत्वपूर्ण कदम यही है कि आप मच्छर के काटने से बचें।



मच्छरों को कम करने का सबसे अच्छा तरीका उन जगहों को खत्म करना है जहां मच्छर अपने अंडे देता है, जैसे कृत्रिम बरतन जिन में घर और उसके आसपास पानी इकठ्ठा होता है। बाहर, स्वच्छ पानी के बरतन जैसे पालतू पशु के पानी पीने वाले बरतन को साफ़ या ढंक कर रखें और फूल बोने वाले गमलों को साफ़ रखें।

घर के अंदर या आसपास पानी खड़ा न होने दें जैसे कि ताजे फूलों के फूलदान में, उन्हें सप्ताह में कम से कम एक बार साफ करें। मच्छर दिन के दौरान और रात में, जब रोशनी होती है, घरों के अंदर वयस्कों को अधिक काटते हैं। अपने आप को बचाने के लिए, घर के अंदर या बाहर रहते हुए अपनी त्वचा पर कीटनाशक दवाई का उपयोग करें।

जब संभव हो, अतिरिक्त सुरक्षा के लिए पूरी बाजू की कमीज और पैंट पहनें। इसके अलावा, सुनिश्चित करें कि खिड़कियां और दरवाजे के शीशे सुरक्षित हैं और बिना छेद के हैं। यदि उपलब्ध हो, तो एयर-कंडीशनिंग का उपयोग करें।

यदि आपके घर में कोई व्यक्ति डेंगू से बीमार है, तो मच्छरों को रोगी को काटने से रोकने के लिए अतिरिक्त सावधानी बरतें और दूसरे भी मच्छर के काटने से बचें। सोते समय मच्छरदानी का उपयोग करें और हो सके तो घर के अंदर रहते हुए भी कीटनाशक दवा को त्वचा पर लगा कर रखें।

लक्षण और क्या करें अगर आपको लगता है कि आपको डेंगू है
डेंगू के मुख्य लक्षण हैं:

तेज बुखार और निम्न में से कम से कम दो:
गंभीर सिरदर्द
आंखों में गंभीर दर्द (आंखों के पीछे)
जोड़ों का दर्द
मांसपेशियों और/या हड्डियों में दर्द
लाल चकत्ते
हल्के रक्तस्राव की अभिव्यक्ति (जैसे, नाक या मसूड़ों से खून आना, लाल रंग के दाने या आसानी से चोट लगना)
सफेद कोशिका की संख्या में कमी
आम तौर पर, छोटे बच्चों और जिनके पहले डेंगू संक्रमण हुआ हो उन में बड़े बच्चों और वयस्कों की तुलना में यह एक मामूली बीमारी होती है।

लक्षणों के शुरू होने के 3 से 7 दिन बाद बुखार में कमी के संकेत चेतावनी के लिए देखें।



निम्न में से कोई भी चेतावनी के संकेत दिखाई देते हैं तो आपातकालीन कक्ष या निकटतम डॉक्टर के पास तुरंत जाएं:

गंभीर पेट दर्द या लगातार उल्टी
त्वचा पर लाल धब्बे या चकत्ते
नाक या मसूड़ों से रक्तस्राव
खून की उल्टी
काला, तारकोल जैसा मल
चिड़चिड़ापन
पीली, ठंडी या रूखी त्वचा
सांस लेने मे तकलीफ
डेंगू रक्तस्रावी बुखार की विशेषता है कि यह सामान्य संकेतों और डेंगू बुखार के अनुरूप लक्षण के साथ 2 से 7 दिनों तक रहता है। बुखार का कम होना चेतावनी का संकेत हो सकता है। यह 24- से 48 घंटे की अवधि की शुरुआत है जब सबसे छोटी रक्त वाहिकाएं अत्यधिक पारगम्य हो जाती हैं, जिससे द्रव घटक रक्त वाहिकाओं से पेरिटोनियम (फेफड़ों में द्रव का भर जाना) से बचने की अनुमति देता है।

इससे संचार प्रणाली की विफलता हो सकती है और आघात हो सकता है, और संभवत: शीघ्र उपचार न किया जाए तो मृत्यु हो सकती है। इसके अलावा, डेंगू रक्तस्रावी बुखार वाले रोगी में प्लेटलेट की संख्या कम हो जाती है और आसानी से या अन्य प्रकार की त्वचा के रक्तस्राव की प्रवृत्ति, नाक या मसूड़ों से खून बहना और संभवतः आंतरिक रक्तस्राव होता है।

उपचार
डेंगू संक्रमण के उपचार के लिए कोई विशिष्ट दवा नहीं है। जिन व्यक्तियों को लगता है कि उन्हें डेंगू है, उन्हें एसिटामिनोफेन के साथ एनाल्जेसिक (दर्द निवारक) का उपयोग करना चाहिए और इबुप्रोफेन, नेप्रोक्सन, एस्पिरिन या एस्पिरिन युक्त दवाओं से बचना चाहिए। उन्हें आराम करना चाहिए, पानी की कमी को रोकने के लिए बहुत सारे तरल पदार्थ पीने चाहिए, मच्छर के काटने से बचना चाहिए जबकि बुखार होने पर डॉक्टर से परामर्श करना चाहिए।

डेंगू के रूप में, डेंगू रक्तस्रावी बुखार के लिए कोई विशिष्ट दवा नहीं है। यदि नैदानिक ​​निदान जल्दी किया जाता है, तो एक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता द्रव प्रतिस्थापन चिकित्सा का उपयोग करके डेंगू रक्तस्रावी बुखार का प्रभावी ढंग से इलाज कर सकता है। डेंगू रक्तस्रावी बुखार के पर्याप्त प्रबंधन के लिए आमतौर पर अस्पताल में भर्ती होने की जरुरत होती है।

महामारी विज्ञान
डेंगू बुखार (DF) चार निकट संबंधी विषाणुओं या सेरोटाइप में से किसी एक के कारण होता है: डेंगू 1-4। सीरोटाइप के साथ संक्रमण दूसरों के खिलाफ रक्षा नहीं करता है, और अनुक्रमिक संक्रमण लोगों को डेंगू रक्तस्रावी बुखार (DHF) और डेंगू शॉक सिंड्रोम (DSS) के जोखिम में डालते हैं।

डेंगू विषाणु का संचरण
डेंगू मच्छरों द्वारा लोगों के बीच फैलता है एडीज़ एजिप्टी और एडीज़ अल्बोपिक्टस, जो दुनिया भर में पाए जाते हैं। संक्रमण के लक्षण आमतौर पर मच्छर के काटने के 4-7 दिन बाद और आमतौर पर 3-10 दिनों के बाद शुरू होते हैं।



संचरण के लिए मच्छर 5 दिन की अवधि के दौरान किसी व्यक्ति को काटना चाहिए, जब रक्त में बड़ी मात्रा में विषाणु होते हैं; यह अवधि आमतौर पर व्यक्ति के लक्षण बनने से थोड़ा पहले शुरू होती है। कुछ लोगों में महत्वपूर्ण लक्षण नहीं दिखते लेकिन फिर भी वो मच्छर से संक्रमित हो सकते हैं।

रक्त में मच्छर के प्रवेश करने के बाद, विषाणु को अतिरिक्त 8-12 दिनों के ऊष्मायन की जरुरत होगी, इससे पहले कि वह दूसरे मानव को प्रेषित कर सके। मच्छर अपने शेष जीवन के लिए संक्रमित रहता है, जो कुछ दिनों या कुछ हफ्तों तक हो सकता है

दुर्लभ मामलों में डेंगू को संक्रमित दाताओं से अंग प्रत्यारोपण या रक्त संक्रमण में प्रेषित किया जा सकता है, और संक्रमित गर्भवती माँ से उसके भ्रूण में संचरण का एक प्रमाण है। लेकिन अधिकांश संक्रमणों में, एक मच्छर के काटने के लिए जिम्मेदार है।

वैश्विक डेंगू
आज लगभग 25 लाख लोग, या दुनिया की 40% आबादी, उन क्षेत्रों में रहती है जहाँ डेंगू फैलने का खतरा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि 50 से 100 मिलियन संक्रमण सालाना होते हैं, जिनमें 5,00,000 डेंगू रक्तस्रावी बुखार के मामले और 22,000 बच्चे शामिल हैं।

## कीटविज्ञान और परिस्थिति विज्ञान

एडीज़ एजिप्टी डेंगू विषाणु का मुख्य मच्छर वेक्टर एक तरह का कीट है, जो मनुष्यों और उनके घर के आस पास पैदा होता है। लोग मच्छरों को न केवल अपना रक्त भोजन के रूप में देते हैं बल्कि मच्छर को पनपने के लिए घर में और आसपास के पानी के बरतन भी देते हैं।

मच्छर पानी से भरी जगहों में या बरतन के किनारों पर अपने अंडे देता है और अंडे बारिश या बाढ़ के बाद लार्वा में मिल जाते हैं। एक लार्वा एक प्यूपा में लगभग एक सप्ताह में और दो दिनों में मच्छर में बदल जाता है। लोग एडीज़ एजिप्टी को अपने घर में पनपने की जगह देते हैं, ठंडे इलाकों में जैसे कि अलमारी क्योंकि घर के अंदर इसकी काटने की क्षमता अधिक होती है।



एडीज़ एजिप्टी मच्छरों को नियंत्रित करना या समाप्त करना बहुत मुश्किल है क्योंकि उनके पास पर्यावरण के लिए अनुकूलन है जो उन्हें अत्यधिक लचीला बनाता है, या प्राकृतिक घटनाओं (जैसे, सूखा) या मानव हस्तक्षेप (जैसे, नियंत्रण उपायों) से बच-बचाव के बाद इनकी तेजी से वृद्धि होती है। इस तरह का एक अनुकूलन अंडों की भीतरी दीवारों पर कई महीनों तक पानी के बिना निर्जलीकरण (सूखने) का सामना करने और जीवित रहने की क्षमता है।

उदाहरण के लिए, यदि हम किसी हिस्से से एक बार में सभी लार्वा, प्यूपा, और वयस्क एडीज़ एजिप्टी को खत्म कर देते हैं, तो बारिश के दो हफ़्ते के बाद बरतन में अतिरिक्त पानी के परिणामस्वरूप अण्डों की आबादी बढ़ सकती है।

यह संभावना है कि एडीज़ एजिप्टी लगातार पर्यावरणीय परिवर्तन के अनुकूल प्रतिक्रिया कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, यह हाल ही में पाया गया है कि एडीज़ एजिप्टी टूटे, खुले और गंदे टैंकों में अपरिपक्व विकास से गुजरने में सक्षम है, जिसके परिणामस्वरूप प्रति दिन सैकड़ों या हजारों एडीज़ एजिप्टी पैदा होते हैं।

सामान्य तौर पर, यह उम्मीद की जाती है कि नियंत्रण हस्तक्षेप से एडीज़ एजिप्टी के स्थानिक और लौकिक फैलाव में बदलाव आएगा और शायद निवास स्थान के उपयोग का स्वरूप बदल जाएगा। इन कारणों के लिए, पहले और पूरे वेक्टर नियंत्रण कार्यों में समर्थन देने के लिए कीटवैज्ञानिक अध्ययनों को शामिल किया जाना चाहिए।

मच्छर का जीवन-चक्र
एडीज़ एजिप्टी और अन्य मच्छरों का आकार, कार्य और निवास स्थान में एक जटिल जीवन-चक्र है। मादा मच्छर पानी के साथ बरतन की गीली दीवारों पर अपने अंडे देती हैं। लार्वा बारिश के पानी या लोगों द्वारा इक्कठे किये हुए पानी के बरतन में दिए अंडे से पनपता है। अगले दिनों में, लार्वा सूक्ष्मजीवों और सूक्ष्म कार्बनिक पदार्थों को खाएगा, और अपनी खाल तीन बार बहाकर पहली से चौथी बार तक बढ़ने में सक्षम होगा।

जब लार्वा पर्याप्त ऊर्जा और आकार प्राप्त कर लेता है और चौथी अवधि में होता है, तो इसका स्वरूप बदलना शुरू होता है और लार्वा स्वयं को कोषस्थ कीट (Pupae) में बदल लेता है। कोषस्थ कीट (Pupae) कुछ नहीं खाता जब तक कि वो वयस्क का शरीर, उड़ने वाला मच्छर नहीं बनता।

फिर, नवनिर्मित वयस्क मच्छर पानी से निकलकर होमकोश्‍या संबंधी त्वचा को तोड़ता है। भोजन के स्तर के आधार पर, पूरे जीवन चक्र कमरे के तापमान पर 8-10 दिनों तक रहता है। इस प्रकार, एडीज़ एजिप्टी जीवन-चक्र में एक जलीय चरण (लार्वा, कोषस्थ कीट) और एक स्थलीय चरण (अंडे, वयस्क) होता है।

यह जीवन-चक्र की जटिलता है जो यह समझना मुश्किल बना देती है कि मच्छर कहाँ से आते हैं। जलीय और स्थलीय रूपों के साथ समान जटिल जीवन-चक्र उभयचरों (amphibians) में देखे जाते हैं। शैक्षिक और प्रशिक्षण उद्देश्यों के लिए, यह जीवन-चक्र बनाने के लिए उपयोगी है, इससे लोगों को यह पता लग सकता है कि जलीय चरण स्थलीय में कैसे बदल जाते हैं।

डेंगू वैक्टर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुकूलन है, जो उनकी आबादी के मुश्किल काम को नियंत्रित करता है।

उनके अंडे कई महीनों तक निर्जलीकरण का सामना कर सकते हैं, जिसका अर्थ है कि भले ही सभी लार्वा, प्यूपा को कुछ समय में समाप्त कर दिया गया था, पर जैसे ही बरतन में पानी भरता है वैसे ही उनमें पड़े अंडों से ये दोबारा पैदा हो सकते हैं। दुर्भाग्य से, बरतन में अंडों को नियंत्रित करने का कोई प्रभावी तरीका नहीं है।

मच्छरों का मुख्य जलीय निवास स्थान
जलीय निवास स्थान वो बरतन हैं जिसमें अंडे वयस्क मच्छरों में विकसित होते हैं। डेंगू फैलाने वाले मच्छर घर और आँगन में पानी से भरे बरतन की दीवारों पर अंडे देते हैं। अंडे पानी में डूबे रहते हैं और महीनों तक जीवित रह सकते हैं। मच्छर अपने जीवनकाल में 5 बार तक दर्जनों अंडे दे सकते हैं।

मैदान या आँगन पर मानव द्वारा बनाए या रखे हुए बरतन होते हैं जिसमें वो बारिश के पानी को इकट्ठा करते हैं या वो पानी से भरे होते हैं जहां डेंगू वैक्टर पनपते हैं। अनुपयोगी बरतन का निपटान, उपयोगी बरतन को एक छत के नीचे रखना या ढक कर संरक्षित करना, और जानवरों के पीने के पानी और फूलों के बर्तनों के पानी को बदलने से डेंगू संक्रमण का जोखिम बहुत कम हो सकता है।

जल भंडारण वाले बरतन को साफ और बंद रखा जाना चाहिए ताकि मच्छर उन्हें जलीय आवास के रूप में उपयोग न कर सकें।

डेंगू और जलवायु
डेंगू विषाणु एडीज मच्छरों द्वारा प्रेषित होता है, जो पर्यावरण की स्थिति के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। मच्छर के जीवित रहने और विकास के लिए तापमान, वर्षा और आर्द्रता महत्वपूर्ण हैं जो मच्छरों की उपस्थिति और बहुतायत को प्रभावित कर सकता है। इसके अतिरिक्त, उच्च तापमान विषाणु के मच्छर को दोबारा पनपने और फैलने के लिए जरुरी समय को कम कर देता है।

इस प्रक्रिया को "एक्सट्रिंसिक इन्क्यूबेशन पीरियड" के रूप में जाना जाता है, जिसे विषाणु के मच्छरों के लार ग्रंथियों तक पहुंचने और मनुष्यों में फैलने से पहले होना चाहिए। यदि मच्छर तेजी से संक्रामक हो जाता है क्योंकि तापमान अधिक गर्म होता है, तो इससे पहले कि वह मर जाए, उसके द्वारा मानव को संक्रमित करने की अधिक संभावना है।

हालांकि पर्यावरणीय कारक महत्वपूर्ण हैं, वे केवल डेंगू संचरण के लिए महत्वपूर्ण कारक नहीं हैं। विषाणु मौजूद होना चाहिए, विषाणु के लिए अभी भी पर्याप्त संख्या में मानव अतिसंवेदनशील या गैर-प्रतिरक्षा होना चाहिए, और उन अतिसंवेदनशील मनुष्यों और मच्छर वैक्टर के बीच संपर्क होना चाहिए।

उन देशों में जहां संचरण नियमित रूप से होता है, मौसम में अल्पकालिक बदलाव, विशेष रूप से तापमान, वर्षा और आर्द्रता, अक्सर डेंगू की घटनाओं से संबंधित होते हैं। हालांकि, ये संघ इन क्षेत्रों में हर कुछ वर्षों में प्रमुख महामारियों की घटना का वर्णन नहीं करते हैं, और यह सुझाव देते हैं कि दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तनशीलता संचरण में दीर्घकालिक स्वरूप को विनियमित नहीं करती है।

महामारियों का एक और महत्वपूर्ण नियामक चार अलग-अलग डेंगू सेरोटाइप्स की परस्पर क्रिया हो सकता है। डेंगू सेरोटाइप में से प्रत्येक के लिए मानव आबादी के पूर्व फैलाव का स्तर अधिक महत्वपूर्ण निर्धारक हो सकता है कि क्या एक बड़ी महामारी जलवायु चक्र की तुलना में होती है।

विश्व स्तर पर, डेंगू की रिपोर्ट बढ़ रही है। हालांकि डेंगू की घटनाओं और वितरण को बदलने में जलवायु की भूमिका हो सकती है, यह कई कारकों में से एक है; घटनाओं में ऐतिहासिक परिवर्तनों के साथ इसके खराब सह-संबंध को देखते हुए, इसकी भूमिका मामूली हो सकती है।

डेंगू की घटनाओं और वितरण में वैश्विक परिवर्तनों में संभावित रूप से योगदान देने वाले अन्य महत्वपूर्ण कारकों में जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, स्वच्छता की कमी, लंबी दूरी की यात्रा, अप्रभावी मच्छरों पर नियंत्रण और रिपोर्टिंग क्षमता में वृद्धि शामिल है।

क्लिनिकल दिशा निर्देश
डेंगू विषाणु
डेंगू एक संक्रमण है जो चार संबंधित डेंगू विषाणु (डीईएनवी 1, डीईएनवी 2, डीईएनवी 3, या डीईएनवी 4) में से किसी एक के कारण होता है। ये डेंगू विषाणु अकेला-असहाय हुए आरएनए विषाणु है जो कि फ्लेविविरिडे और जीनस फ्लैवविषाणु से संबंधित है, जिसमें अन्य चिकित्सकीय रूप से महत्वपूर्ण वेक्टर-जनित विषाणु (जैसे, वेस्ट नाइल विषाणु, येल्लो फीवर विषाणु, जापानी एन्सेफलाइटिस विषाणु, सेंट लुइस इंसेफेलाइटिस विषाणु आदि) हैं।

डेंगू विषाणु अर्बोविरस (आर्थ्रोपोड-जनित विषाणु) हैं जो एक संक्रमित एडीज़ जाति के मच्छर के काटने से मुख्य रूप से मनुष्यों में संचारित होते हैं। संक्रमित रक्त के संक्रमण या संक्रमित अंगों या ऊतकों के प्रत्यारोपण के माध्यम से भी संक्रमण हो सकता है।

डेंगू के मानव संचरण को स्वास्थ्य देखभाल स्थिति (जैसे, सुई छड़ी की चोट) में व्यावसायिक विवरण के बाद भी होने के लिए जाना जाता है और साहित्य में ऊर्ध्वाधर संचरण के मामलों का वर्णन किया गया है (अर्थात, डेंगू संक्रमित गर्भवती माँ से उसके गर्भाशय में भ्रूण या प्रसव और प्रसव के दौरान उसके शिशु को संचरण)।

क्लिनिकल डेंगू
डेंगू संक्रमण चार अलग-अलग लेकिन निकट संबंधी डेंगू वायरस (DENV) सेरोटाइप (जिसे डीईएनवी 1, डीईएनवी 2, डीईएनवी 3, या डीईएनवी 4 कहा जाता है) में से किसी एक के कारण होता है। बीमारी के स्पेक्ट्रम में हल्के, गैर-विशिष्ट ज्वर सिंड्रोम से लेकर क्लासिक डेंगू बुखार तक, रोग के गंभीर रूप, डेंगू रक्तस्रावी बुखार और डेंगू शॉक सिंड्रोम तक हो सकते हैं।

गंभीर रूप आम तौर पर दो से सात दिन के ज्वर अवस्था के बाद प्रकट होते हैं और अक्सर नैदानिक और प्रयोगशाला चेतावनी के संकेत द्वारा सूचित किए जाते हैं। डेंगू संक्रमण और डीएचएफ या डीएसएस विकसित करने वालों के लिए जल्दी उपचार की प्रारंभिक नैदानिक पहचान जीवन बचा सकती है।

जबकि डेंगू संक्रमण के लिए कोई चिकित्सीय कारक मौजूद नहीं है, सफल प्रबंधन की कुंजी आइसोटोनिक अंतःशिरा तरल पदार्थ या कोलाइड के प्रशासन सहित सहायक देखभाल के समय पर और विवेकपूर्ण उपयोग होता है, और महत्वपूर्ण संकेतों और हेमोडायमिक स्थिति, द्रव संतुलन, और हेमटोलोगिक मापदंडों की करीबी निगरानी होती है।

जैसा कि डीएफ और डीएचएफ/डीएसएस की शुरुआती प्रस्तुतियां एक समान हैं और संक्रमण की कार्यप्रणाली छोटी होती है, ऐसे व्यक्तियों की समय पर पहचान जो गंभीर अभिव्यक्तियों को विकसित करेंगे, चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं। इस बात पर लंबे समय से बहस चल रही है कि क्या डीएचएफ/डीएसएस अलग पैथोफिजियोलॉजिकल प्रक्रिया का वर्णन करते हैं या केवल बीमारी की निरंतरता का विपरीत छोर है। डीएफ असहजता अपेक्षाकृत सौम्य स्व-सीमित कार्यप्रणाली का पालन करता है।

डीएचएफ पहली बार में अपेक्षाकृत सौम्य संक्रमण के रूप में प्रकट हो सकता है लेकिन बुखार के रूप में जल्दी से जीवन के लिए खतरनाक बीमारी में विकसित हो सकता है। डीएचएफ को आमतौर पर डीएफ से अलग किया जा सकता है क्योंकि यह अपने तीन पूर्वानुमानित पैथोफिज़ियोलॉजिकल चरणों के माध्यम से आगे बढ़ता है:

ज्वर चरण: विरेमिया-संचालित उच्च बुखार
गंभीर / प्लाज़्मा रिसाव का चरण: अचानक फुफ्फुस और उदर गुहाओं में प्लाज्मा रिसाव की अलग-अलग डिग्री की शुरुआत
संवहनी या पुनर्संयोजन चरण: अचानक प्लाज्मा और तरल पदार्थ के सहवर्ती अभिकर्मक के साथ प्लाज्मा रिसाव की स्र्कावट
डेंगू से संक्रमण वाले रोगी के इष्टतम प्रबंधन के लिए, इन चरणों को समझना और डीएफ से डीएचएफ को अलग करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है। नैदानिक प्रबंधन के लिए रोगी के नैदानिक चरण की प्रारंभिक पहचान महत्वपूर्ण है, उपचार की प्रभावशीलता की निगरानी करना, और जब उनके प्रबंधन में परिवर्तन की आवश्यकता हो, तो पूर्वानुमान करना जरुरी है।

डेंगू संक्रमित रोगी या तो स्पर्शोन्मुख होते हैं या उनकी तीन नैदानिक प्रस्तुतियाँ होती हैं:
अनिश्चित बुखार
रक्तस्राव के साथ या उसके बिना डेंगू बुखार
डेंगू रक्तस्रावी बुखार या डेंगू शॉक सिंड्रोम
स्पर्शोन्मुख संक्रमण: सभी डेंगू संक्रमित व्यक्तियों में से एक-आधा व्यक्ति स्पर्शोन्मुख है, अर्थात उनके पास कोई नैदानिक लक्षण या बीमारी के लक्षण नहीं हैं।

अनिश्चित बुखार: यह पहला नैदानिक कार्यप्रणाली अपेक्षाकृत सौम्य परिदृश्य है जहां रोगी हल्के गैर-विशिष्ट लक्षणों के साथ बुखार का अनुभव करता है जो किसी भी अन्य तीव्र ज्वर संबंधी बीमारियों की नकल कर सकता है। वे डीएफ के लिए मामले की परिभाषा के मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं। लक्षणों की गैर-विशिष्ट प्रस्तुति अकेले शारीरिक परीक्षा और नियमित परीक्षणों के आधार पर सकारात्मक निदान को मुश्किल बनाती है।

इन रोगियों के बहुमत के लिए, जब तक डेंगू नैदानिक सेरोलॉजिकल या आणविक परीक्षण नहीं किया जाता है, तब तक निदान अज्ञात रहेगा है। ये मरीज़ आम तौर पर छोटे बच्चे होते हैं जो अपना पहला संक्रमण अनुभव करते हैं, और वे अस्पताल की देखभाल की आवश्यकता के बिना पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं।

रक्तस्राव के साथ या उसके बिना डेंगू बुखार: दूसरी क्लिनिकल प्रस्तुति तब होती है जब कोई मरीज रक्तस्राव के साथ या उसके बिना डीएफ विकसित करता है। ये मरीज़ आम तौर पर बड़े बच्चे या वयस्क होते हैं और वे दो से सात दिनों तक तेज बुखार और निम्न लक्षणों में से दो या अधिक के साथ उपस्थित होते हैं: गंभीर सिरदर्द, रेट्रो-ऑर्बिटल नेत्र दर्द, माइलगियास, आर्थ्रालजीस, एरिथेमेटस मैकुलो-पापुलर के दाने, और हल्के रक्तस्रावी प्रकटन होता है।

पेटीचिया के रूप में सूक्ष्म, मामूली उपकला रक्तस्राव, अक्सर निचले छोरों पर पाए जाते हैं (लेकिन कपोल् म्यूकोसा, सख़्त और नरम तालु और या सबकोन्जिक्टिवा पर भी हो सकते हैं), त्वचा पर चोट लगना, या रोगी का सकारात्मक टर्नकीकेट परीक्षण हो सकता है। रक्तस्राव के अन्य रूप जैसे कि एपिस्टेक्सिस, मसूड़े से खून बहना, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल रक्तस्राव या मूत्रजननांगी रक्तस्राव भी हो सकता है, लेकिन कम होते हैं।

ल्यूकोपेनिया लगातार होता है और थ्रोम्बोसाइटोपेनिया की अलग-अलग डिग्री के साथ हो सकता है। बच्चों को मतली और उल्टी के साथ भी उपस्थित हो सकते हैं। डीएफ के साथ मरीजों को पर्याप्त प्लाज्मा रिसाव (डीएचएफ और डीएसएस की बानगी) या व्यापक क्लिनिकल रक्तस्राव विकसित नहीं होता है।

डेंगू वायरल आरएनए या वायरल अलग करने के लिए एंटी-डेंगू आईजीएम एंटीबॉडी या आणविक परीक्षण के लिए सीरोलॉजिकल परीक्षण निदान की पुष्टि कर सकता है, लेकिन ये परीक्षण अक्सर केवल पूर्वव्यापी पुष्टि प्रदान करते हैं, क्योंकि परिणाम आम तौर पर तब तक उपलब्ध नहीं होते हैं जब तक कि रोगी ठीक नहीं हो जाता।

डीएफ की क्लिनिकल प्रस्तुति और डीएचएफ के प्रारंभिक चरण एक समान हैं, और इसलिए बीमारी के दौरान शुरुआती दो रूपों के बीच अंतर करना मुश्किल हो सकता है। प्रमुख संकेतकों के नज़दीक निगरानी के साथ, रक्षात्मकता के समय डीएचएफ के विकास का पता लगाया जा सकता है ताकि प्रारंभिक और उचित चिकित्सा शुरू की जा सके।

डेंगू संक्रमण के साथ रोगियों में सफलतापूर्वक प्रबंधित और डेंगू रक्तस्रावी बुखार के कारण चिकित्सा जटिलताओं या मृत्यु की संभावना को कम करना प्रारंभिक पहचान और अग्रिम उपचार है।

डेंगू रक्तस्रावी बुखार या डेंगू शॉक सिंड्रोम: तीसरी क्लिनिकल प्रस्तुति डीएचएफ के विकास का परिणाम है, जो कुछ रोगियों में डीएसएस के लिए प्रगति करती है। चल रही बीमारी और डीएचएफ के शुरुआती लक्षणों की चेतावनी संकेतों की पहचान करने के लिए महत्वपूर्ण है जो डीएफ के समान है।

डीएचएफ के तीन चरण हैं: ज्वर चरण ; गंभीर (प्लाज़्मा रिसाव) चरण; और संवहनी (पुनर्संयोजन) चरण

ज्वर चरण: बीमारी की शुरुआत में, डीएचएफ वाले मरीज डीएफ की तरह बहुत कुछ पेश कर सकते हैं, लेकिन पीलिया के बिना उन्हें हेपेटोमेगाली भी हो सकता है। डीएचएफ की शुरुआती कार्यप्रणाली में होने वाली रक्तस्रावी अभिव्यक्तियाँ अक्सर डीएफ के रूप में हल्के रक्तस्रावी अभिव्यक्तियों से मिलकर होती हैं।

आमतौर पर, जब रोगी को बुखार होता है तो एपिस्टेक्सिस, मसूड़ों से कम रक्तस्राव, या खुलकर गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल रक्तस्राव होता है (जठरांत्र रक्तस्राव इस बिंदु पर शुरू हो सकता है, लेकिन आमतौर पर तब तक स्पष्ट नहीं होता है जब तक कि मेलेनिक मल कार्यप्रणाली में बाद में पारित नहीं होता है)।

डेंगू विरेमिया बुखार के शुरुआत के बाद आमतौर पर पहले तीन से चार दिनों में सबसे अधिक होता है, लेकिन फिर अगले कुछ दिनों में जल्दी से पता लगाने में असमर्थ स्तर तक गिर जाता है। विरेमिया और बुखार का स्तर आमतौर पर एक-दूसरे का बारीकी से पालन करते हैं, और डेंगू-विरोधी आईजीएम एंटीबॉडी बुखार के बढ़ने के रूप में बढ़ जाते हैं।

गंभीर (प्लाज़्मा रिसाव) चरण: उस समय जब बुखार समाप्त हो जाता है, मरीज प्लाज्मा रिसाव और रक्तस्राव की गंभीर अभिव्यक्तियों को विकसित करने के लिए उच्चतम जोखिम की अवधि में प्रवेश करता है। इस समय, फुफ्फुस और पेट की गुहाओं में रक्तस्राव और प्लाज्मा रिसाव के सबूत के लिए देखना और इंट्रावस्कुलर नुकसान की जगह पर उचित उपचारों को लागू करना और प्रभावी मात्रा को स्थिर करना महत्वपूर्ण है।

यदि उपचार छोड़ दिया जाता है, तो इससे इंट्रावस्कुलर वॉल्यूम में कमी और हृदय से मध्यमार्ग हो सकता है। प्लाज्मा रिसाव के साक्ष्य में हेमटोक्रिट (आधार रेखा से ,20% वृद्धि) में अचानक वृद्धि, जलोदर की उपस्थिति, पार्श्व डीकुबिटस छाती एक्स-रे पर नया फुफ्फुस बहाव, या कम सीरम एल्बुमिन या उम्र और लिंग के लिए प्रोटीन शामिल हैं।

प्लाज्मा रिसाव वाले रोगियों को हेमोडायनामिक मापदंडों में शुरुआती बदलावों के लिए निगरानी की जानी चाहिए, जो कि विशेष रूप से बुखार, कमजोर और पहले से ही नाड़ी, ठंडी चरम सीमाओं, नाड़ी दबाव (सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर माइनस) के अभाव में, उम्र के लिए बढ़ी हुई हृदय गति (टैचीकार्डिया) के रूप में क्षतिपूर्ति सदमे के अनुरूप है।

डायस्टोलिक रक्तचाप <20 एम एम एचजी), विलंबित केशिका रिफिल (>2 सेकंड), और पेशाब में कमी (अर्थात, ऑलिगुरिया)। अत्याधिक रक्तस्राव होने पर खून में कमी आने से आसन्न ,आघात या गंभीर रक्तस्राव के संकेतों को प्रदर्शित करने वाले रोगियों को निगरानी और संवहनी मात्रा प्रतिस्थापन के लिए एक उचित स्तर की गहन देखभाल इकाई में भर्ती किया जाना चाहिए। एक बार जब कोई मरीज आघात का अनुभव करता है तो उसे डीएसएस होने के वर्ग में माना जाएगा।

लंबे समय तक आघात जटिलताओं से जुड़ा मुख्य कारक है जो बड़े जठरांत्र संबंधी रक्तस्राव सहित मृत्यु का कारण बन सकता है। दिलचस्प बात यह है कि, डीएचएफ / डीएसएस के साथ कई रोगी पूरी तरह से बीमारी के दौरान सतर्क और स्पष्ट रहते हैं, यहां तक कि गहरे आघात के टिपिंग बिंदु पर भी हैं।

रोगी के गंभीर चरण में प्रवेश करने के साथ ही उपचारों को प्रभावी ढंग से संचालित करने के लिए एंटीसेप्टिक प्रबंधन और निगरानी संकेतक आवश्यक हैं। लिम्फोसाइटोसिस के साथ ल्यूकोपेनिया की प्रारंभिक शुरुआत (डब्ल्यूबीसी <5,000 कोशिकाओं/ एमएम 3) और एटिपिकल लिम्फोसाइटों में वृद्धि से संकेत मिलता है कि बुखार अगले 24 घंटों के भीतर फैलने की संभावना है और मरीज गंभीर चरण में प्रवेश कर रहा है।

मरीज को पहले से ही गंभीर चरण में प्रवेश करने वाले संकेत उच्च (>38.0° सी) से अचानक या सामान्य तापमान, थ्रोम्बोसाइटोपेनिया (100,000 कोशिकाओं/ एमएम 3) से अचानक या उच्च हेमटोक्रिट (बेसलाइन से ≥20% वृद्धि) के साथ अचानक परिवर्तन को शामिल करते हैं , नया हाइपोएल्ब्यूमिनमिया या हाइपोकोलेस्टेरोलेमिया, नया फुफ्फुस बहाव या जलोदर, और संकेत और आसन्न या आघात के लक्षण शामिल हैं।

फिर से, डीएचएफ के साथ रोगियों को सफलतापूर्वक प्रबंधित करने और जटिलताओं या मृत्यु की संभावना को कम करना प्रारंभिक पहचान और अग्रिम उपचार है। गंभीर समय के दौरान सहायक देखभाल और समय पर मापा गया संवहनी मात्रा में बदलाव डीएचएफ और डीएसएस के लिए उपचार के मुख्य आधार हैं। सौभाग्य से, महत्वपूर्ण अवधि 24 से 48 घंटे तक नहीं रहती है।

इस अवधि के दौरान उत्पन्न होने वाली अधिक जटिलताएं जैसे कि रक्तस्राव और चयापचय संबंधी असामान्यताएं (जैसे, हाइपोकैल्सीमिया, हाइपोग्लाइसीमिया, हाइपरग्लाइसेमिया, लैक्टिक एसिडोसिस और हाइपोनिर्मिया) अक्सर लंबे समय तक आघात से संबंधित होती हैं। इसलिए, इस अवधि के दौरान मुख्य उद्देश्य लंबे समय तक आघात को रोकना और महत्वपूर्ण प्रणालियों का समर्थन करना है जब तक कि प्लाज्मा रिसाव कम न हो जाए।

सावधानीपूर्वक ध्यान दिए जाने वाले (या रक्त उत्पाद यदि आधान की आवश्यकता है) अंतःशिरा द्रव के प्रकार, दर और समय के साथ प्राप्त मात्रा पर ध्यान देना चाहिए। गंभीर चरण के दौरान सफल प्रबंधन के लिए संवहनी मात्रा, महत्वपूर्ण अंग का कार्य और रोगी की प्रतिक्रिया की लगातार निगरानी आवश्यक है। अपरोक्ष और मनोगत रक्तस्राव के लिए निगरानी (जो संवहनी की कमी का एक और स्रोत हो सकता है) भी जरुरी है।

यदि इस चरण के दौरान पर्याप्त रक्तस्राव का संदेह है, तो रक्त उत्पादों की जगह की मात्रा में परिवर्तन पर विचार किया जाना चाहिए।

संवहनी (पुनर्संयोजन) चरण: तीसरा चरण शुरू होता है जब गंभीर चरण समाप्त होता है और जब प्लाज्मा रिसाव बंद हो जाता है और पुनर्संयोजन शुरू होता है तो इसकी विशेषता होती है। इस चरण के दौरान, गंभीर चरण के दौरान संवहनी की जगह (अर्थात, प्लाज्मा और प्रशासित अंतःशिरा तरल पदार्थ) से रिसाव हुए तरल पदार्थ पुन: अवशोषित हो जाते हैं।

संकेतक यह सुझाव देते हैं कि रोगी दीक्षांत समारोह के चरण में प्रवेश कर रहा है, इसमें रोगी द्वारा रिपोर्ट की गई सुधरी हुई बेहतरी, भूख की वापसी, महत्वपूर्ण संकेत स्थिर करना (चौड़ा नाड़ी दबाव, मजबूत तालु नाड़ी), ब्रैडीकार्डिया, हेमटिटिट लेवल सामान्य, बढ़ा हुआ मूत्र उत्पादन में शामिल हैं और डेंगू (अर्थात संगम कभी-कभी प्रुरिटिक, अप्रभावित त्वचा के कई छोटे गोल द्वीपों के साथ दानेदार दाने) की विशेषता संवहनी चकत्ते की उपस्थिति है। इस समय, उन संकेतों को पहचानने के लिए ध्यान रखा जाना चाहिए, जो यह दर्शाते हैं कि संवहनी मात्रा स्थिर हो गई है (अर्थात, प्लाज्मा रिसाव रुक गया है) और यह पुनः आरंभ हो गया है।

तरल पदार्थ के अधिभार से बचने के लिए अंतःशिरा तरल पदार्थ की दर और मात्रा को संशोधित करना (और अक्सर अंतःशिरा तरल पदार्थ को पूरी तरह से बंद कर देना) क्योंकि संवहनी परिस्त्राव में अतिरिक्त तरल पदार्थ वापस आते हैं। स्वास्थ्यलाभ से संबंधित (पुर्नअवशोषण) चरण के दौरान उत्पन्न होने वाली जटिलताएँ अक्सर अंतःशिरा द्रव प्रबंधन से संबंधित होती हैं।

तरल पदार्थ अधिभार हाइपोटोनिक नसों में अंतःशिरा तरल पदार्थों के उपयोग या परिणाम या चरण के दौरान नसों में अंतःशिरा तरल पदार्थों के अधिक उपयोग से जारी हो सकता है।

हालांकि संक्रमित मरीज को बीमारी के दौरान (आंख, जोड़, हड्डी, मांसपेशियों या सिर में दर्द से) बहुत असहज होने की संभावना होती है, जैसे कि तरल पदार्थ अधिभार या मैकेनिकल वेंटिलेशन जैसी जटिलताओं को रोक कर डीएचएफ वाले लगभग सभी रोगी विवेकपूर्ण तरल पदार्थ की समय पर शुरुआत के साथ तेजी से प्रबंधन और सावधान निगरानी से ठीक होते हैं।

यह इस तथ्य के कारण है कि वृद्धि हुई संवहनी पारगम्यता की अवधि समय-सीमित (24 से 48 घंटे तक चलने वाली) है और संवहनी एंडोथेलियम में कार्यात्मक परिवर्तन बिना किसी ज्ञात स्थायी संरचनात्मक दोष के पूरी तरह से प्रतिवर्ती प्रतीत होता है। जटिलताओं के साथ भी, अगर सफलतापूर्वक प्रबंधित किया जाता है, तो अक्सर रोगोत्‍तर लक्षण के बिना पूरी तरह से ठीक हो जाता है।

सीडीसी डीईएनवी-1-4 रीयल-टाइम आरटी-पीसीआर की परख
डेंगू डायग्नोसिस के लिए सीडीसी रियल-टाइम आरटी-पीसीआर की परख
डेंगू बुखार के सबसे सामान्य कारणों में से एक है। डेंगू विषाणु संक्रमण को दो चरणों में बांटा जा सकता है: तीव्र और आक्षेपजनक। तीव्र चरण लक्षणों की शुरुआत के साथ शुरू होता है और लगभग 5 दिनों तक रहता है। बुखार के कम होने के बाद आक्षेपजनक चरण शुरू होता है और 4 से 7 दिनों तक रहता है।

जब रक्त में डेंगू विषाणु मौजूद होता है तो डेंगू के मरीजों में आमतौर पर लक्षण दिखाई देते हैं। बीमारी के पहले 5 दिनों के दौरान रक्त में विषाणु का स्तर आमतौर पर अधिक होता है। सीडीसी रियल-टाइम आरटी-पीसीआर परख डेंगू विषाणु का पता लगाता है कि इस समय के दौरान डेंगू के लक्षणों के शुरू होने के बाद बहुत अधिक मात्रा में मामले सामने आते हैं।

यह महत्वपूर्ण है क्योंकि डेंगू के निदान की वक़्त से पहले प्रयोगशाला में चिकित्सकों द्वारा पुष्टि के मामले को प्रबंधन करने में मदद करती है।

सीडीसी ने लागू करने के लिए बायोसिस्टम्स (एबीआई) 7500 फास्ट डीएक्स रियल-टाइम पीसीआर उपकरण का उपयोग करके इन्फ्लूएंजा परीक्षण के लिए इस परख को विकसित किया है। सीडीसी ने डेंगू के निदान के लिए आणविक परीक्षण के उपयोग की सुविधा के लिए इस व्यापक रूप से इस्तेमाल किए गए परीक्षण मंच का लाभ उठाने के लिए अपने डेंगू आरटी-पीसीआर परीक्षण को अनुकूल किया है।

सीडीसी रियल-टाइम आरटी-पीसीआर की परख के लक्षण
यह परख मानव सीरम या प्लाज्मा से मानव रोगियों से एकत्र किए गए डीएनवी सीरोटाइप्स 1, 2, 3 या 4 का पता लगाता है, जिसमें डेंगू संक्रमण के अनुरूप संकेत और लक्षण होते हैं। परख का उपयोग रोगियों में नैदानिक परीक्षण के रूप में किया जाता है और यह ब्लड बैंक स्क्रीनिंग के लिए स्वीकृत नहीं है।

सीडीसी डीईएनवी-1-4 रीयल-टाइम आरटी-पीसीआर की परख में शामिल हैं:

डेंगू विषाणु सीरोटाइप 1, 2, 3 या 4 इन विट्रो गुणात्मक का पता लगाने के लिए ओलिगोन्यूक्लियोटाइड प्राइमरों और डुअल-लेबल हाइड्रॉलिसिस जांच में मानव रोगियों से डेंगू (हल्के या गंभीर) के अनुरूप संकेतों और लक्षणों से एकत्र सीरम या प्लाज्मा से है।
सकारात्मक नियंत्रण विषाणु मिश्रण, जिसमें गर्म-निष्क्रिय डीईएनवी-1, डीईएनवी-2 एनजीसी, डीईएनवी-3 एच87 और डीईएनवी-4 एच241 शामिल हैं।
मानव नमूना नियंत्रण (एचएससी) गैर-संस्कारी संवर्धित मानव कोशिका सामग्री है जो परख में सकारात्मक संकेत प्रदान करता है और आरएनए की सफल वसूली के साथ-साथ आरएनए निष्कर्षण अभिकर्मक की अखंडता को प्रदर्शित करता है।
मानव रिबोन्यूक्लीज पी आरएनए (आरपी) संवर्धित कोशिका द्रव्य में मौजूद है और अधिक नैदानिक नमूनों और आरटी-पीसीआर द्वारा प्राइमरों और जांचों का उपयोग करके पता लगाया जा सकता है। यंत्र में सहायक अभिकर्मक शामिल नहीं हैं।

सीडीसी डीईएनवी-1-4 रीयल-टाइम आरटी-पीसीआर की परख सिंगलप्लेक्स (प्रत्येक डीईएनवी सीरोटाइप अलग प्रतिक्रिया में पाया गया) या मल्टीप्लेक्स (चार डीईएनवी सीरोटाइप एक ही प्रतिक्रिया में चलाए जाते हैं) में चलाया जा सकता है। ये दो प्रारूप समान संवेदनशीलता प्रदान करते हैं।

सीडीसी डीईएनवी-1-4 रियल-टाइम आरटी-पीसीआर परख का उपयोग का उद्देश्य
सीडीसी डीईएनवी-1-4 रीयल-टाइम आरटी-पीसीआर परख लागू करने के लिए बायोसिस्टम्स (ABI) 7500 फास्ट डीएक्स रियल-टाइम पीसीआर उपकरण उपयोग के लिए है:

डेंगू (हल्के या गंभीर) के अनुरूप संकेतों और लक्षणों वाले रोगियों से एकत्र सीरम या प्लाज्मा में डेंगू के निदान के लिए;
डेंगू विषाणु सीरोटाइप की पहचान के लिए 1, 2, 3 या 4 वायरल आरएनए से सीरम या प्लाज्मा (सोडियम साइट्रेट) डेंगू के साथ मानव रोगियों से एकत्र;
डेंगू विषाणु के प्रसार की निगरानी के लिए महामारी संबंधी जानकारी प्रदान करना।
सीडीसी डीईएनवी-1-4 रीयल-टाइम आरटी-पीसीआर परख के साथ नैदानिक रक्त नमूनों (सीरम या प्लाज्मा) का परीक्षण तब तक नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि संदिग्ध डेंगू मामलों के परीक्षण के लिए रोगी नैदानिक और / या महामारी विज्ञान मानदंडों से न मिले।
सीडीसी डीईएनवी-1-4 रीयल-टाइम आरटी-पीसीआर परख रक्त या प्लाज्मा दाताओं की स्क्रीनिंग के लिए स्वीकृत नहीं है।

सीडीसी डीईएनवी-1-4 रीयल-टाइम आरटी-पीसीआर परख पर सकारात्मक परिणाम वर्तमान डेंगू संक्रमण का संकेत देते हैं। बुखार के शुरुआत के 1-5 दिन बाद डेंगू होने के संदेह वाले रोगियों के रक्त के नमूनों का इस उपकरण से परीक्षण किया जाना चाहिए। इस परीक्षण के साथ प्राप्त नकारात्मक परिणाम डेंगू के निदान को रोकते नहीं हैं और इसे उपचार या अन्य रोगी प्रबंधन निर्णयों के लिए एकमात्र आधार के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

यदि आरटी-पीसीआर परिणाम नकारात्मक हैं, तो एंटी-डीएनवी आईजीएम परीक्षण पर विचार किया जाना चाहिए (जैसे इंबायोस डीएनवी डिटेक्ट आईजीएम कैप्चर एलिसा)। यदि लक्षणों की शुरुआत के 5 या अधिक दिनों के बाद रक्त का नमूना रोगी से लिया जाता है, तो प्रयोगशाला निदान को आईजीएम एंटीबॉडी से डीईएनवी के लिए परीक्षण का उपयोग करके सबसे अच्छा बनाया जाता है।

परख वितरण
सीडीसी डीईएनवी-1-4 रीयल-टाइम आरटी-पीसीआर परख उन कर्मियों के साथ प्रयोगशालाओं में वितरित किया जाएगा जिनके पास मानकीकृत हैं